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अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र
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17. सागर के प्रभूत जल की झंकार करती करधनी वाली पृथ्वी के पालन में
लीन हो गया जिसके चरण कमलों के अधीनस्थ नृपों के मुकुट में उत्कीर्ण मकरिका चूमती रही। 19 नव जलद के समान वीरों की आवाज तथा गम्भीर रणभेरी से शत्रुओं के
सारे दिगन्त बहरे हो रहे हैं, 18. ढोल की गंभीर, ऊंचे से बजने वाली तूरी की कठोर आवाज में प्रवृत्त
त्रिभुवन-धवल (श्रेष्ठ) की प्रवृत्ति का यह समय है। 20
पुण्यवर्मा के फलस्वरूप अपने तेज से नृपों के सिरों पर अपने पैर पसार कर 19. सारी दिशाओं में क्रमशः फैलने वाली कमनीय उन्नति जिसने प्राप्त की।
पुनः जिसका मण्डल (सूर्य के समान अनुरक्त (लाल) होकर (अर्थात् राजसमूह के आसक्त होने से) एवं कमलसमूह को विकसित करने वाला (जिसके चरणों की सतत वन्दना होने से) स्वयं दुस्सह तेज सम्पन्न सूर्य भी (उसका निवास छोड़) उत्तरायण हो गया। 21
उसने 20. नागभट तथा चन्द्रगुप्त नपों की शंसनीय कीर्ति अपहरण करते हुए अधीर
नृपों का उन्मूलन करते हुए उस यश के अर्जन में निरत ने धान के पौधों
के समान शत्रु नृपों को भी पृथ्वी पर पुनः 21. अपने पद पर ही प्रतिष्ठित करता रहा। 22
हिमालय पर्वत के निर्झर के नीर का उसके अश्वों ने पान किया तथा गंगाजल का गजों ने।
(द्वितीय पत्र : मुख भाग) 22. उसकी कन्दराओं में स्नात तुरहियां पुनः दुगुनी ध्वनि कर उठीं। फलतः
उसकी महानता के समक्ष धर्मपाल तथा चक्रायुध स्वयं आ झुके और उस कीर्तिनारायण (कीर्ति में नारायण के समान) ने हिमालय के यश का गौरव
प्राप्त किया। 23 23. वहां से लौटकर, निसर्गतः सेवक कर्म करवाने वाले प्रताप के समान वह
पुनः नर्मदा के किनारे-किनारे चल दिया। जहां उसने कौशल, कलिंग वेंगी, डहल, औडु तथा मालवों को अपने सेवकों के साथ उपलब्ध कर, स्वयं अपने विक्रम से उनकी (उनकी सेवा का) भोग किया। 24
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