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धर्मपालदेव का खालिमपुर ताम्रपत्र
चारों समुद्रों में स्नान करते गजयूथ की चरण के (चिह्न) मुद्रा से तट अंकित रहे।
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12. सारी दिशाओं के विजयेछुक जिस नृप की यात्रा नहीं सह पाते। 6 दिग्विजय में प्रवृत्त जिस नृप की लीला से सैन्य के प्रयाण पर 13. उसके वशीभूत हो पृथ्वी चल देती है और चलते पर्वत पक्षी का अनुकरण करने लगते हैं। भार से झुककर डूबते मणि विरहित शिरसमूहों (रूप चक्रायुध) की सहायता के लिये शेष
14. के साथ ही सतत, उसके साथ नीचे धंस गया। 7
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जिसके प्रस्थानकाल में चलती सेना के दबाव से उड़ती अपार धूल 15. से आवृत आकाश से युक्त भूमि के होने पर, नाग के फणसमूह क्षीण से लगते हैं और इस माहोल में हल्के होते नागराज की मणि भी
16. बड़ी लाघवया सरलता से चमकती है। 8
विरोधी राज्यों के क्षोभ से और्व के समान जिसका जलता क्रोधानल चारों समुद्रों के जल से भी शांत नहीं हुआ। 9
17. पृथु, राम, राघव, नल आदि जो भूमिपाल हुए उन लुप्त नृपों को एकत्र कलियुग में देखने के लिये ही विधाता ने
18. सारे नृपों के मान एवं महिमा के विनाशक तथा चंचल लक्ष्मी रूपी हथिनी को बांधने के लिये धर्मपाल रूपी महास्तम्भ प्रस्तुत किया। 10
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19. जिनके मानव-निर्झर की फुहार से श्वेत, विस्तृत, क्षण क्षण में दिखने वाली, सौम्य से पूर्ण दशों दिशाओं को ध्यान लीन हो महेन्द्र भी देखता ही रह गया, जो मान्धाता की सेना से भी बढ़कर थी ।
20. युद्ध की इच्छा से पुलकित शरीर वाले सैनिकों से युक्त ऐसी सेना की सहायता की भी सारे शत्रु समूह के विनाशक धर्मपाल की बाहुओं को उनकी सहायता की आवश्यकता नहीं थी ।
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प्रशंसा में डोलते सिरों से 'साधु साधु' कहकर भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन, अवन्ति, गन्धार, कीर आदि नृपों ने जिसे झुककर प्रणाम किया। हर्षित होकर पञ्चाल के वृद्ध ने अभिषक का जलपूर्ण स्वर्णकुम्भ उठाकर गिरते जल के साथ भौंह चलाते हुए जिसने कान्य कुब्ज प्रदान कर दिय। 12