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प्राचीन भारतीय अभिलेख
क्रमशः बृहस्पति, तुम्बुरु (एक गन्धर्व), नारद आदि को लजाने वाला है, विद्वानों के लिये उपजीव्य (स्रोत) भूत अनेक काव्यों की रचना से जिसने 'कविराज' शब्द को प्रतिष्ठित किया है, चिरकाल तक स्तुति (प्रशंसा) करने योग्य अद्भुत एवं उदार चरित से सम्पन्न, लोकाचार के अनुरूप कर्म सम्पन्न करने के लिये ही जो मानव है (अन्यथा) मृत्युलोक में बसा हुआ वह देवता है। महाराज श्रीगुप्त का प्रपौत्र,
महाराज श्रीघटोत्कच का पौत्र, महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त का पुत्र, 29. लिच्छवि (कुल) का दौहित्र महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न महाराजाधिराज
श्रीसमुद्रगुप्त का, सारी पृथ्वी के विजय से उत्पन्न अभ्युदय से सारी पृथ्वी
पर व्याप्त एवं इन्द्र के 30. भवन तक पहुंच कर (स्वर्ग में) विचरने का ललित (मनोरम) सुख पाने
वाली कीर्ति को मानो व्यक्त करता हुआ यह स्तम्भ पृथ्वी के बाहु के समान (उन्नत) खड़ा है। जिस (समुद्रगुप्त) के दान, बाहु के विक्रम, शान्ति (स्वस्थचित्तता), धर्मशास्त्रीय वाणी आदि के आविर्भाव से, सामूहिक उन्नति तथा अनेक पथ से प्राप्त होने वाला यश (सतत) ऊपर की ओर
बढ़ता हुआ 31. शिवजी की जटा के अन्दर की गुफा में रुककर वेग से निकलने वाले पाण्डु
(भूरे) वर्ण के गंगाजल के समान त्रिभुवन को पवित्र कर रहा है। और यह काव्य इन्हीं भट्टारक (श्रद्धेय) के चरणों के दास, निकट-वास से उपलब्ध अनुग्रह से विकसित बुद्धि वाले खाद्य-टपाकिक (सम्भवतः खाद्यविभाग अथवा रसोई का अधिकारी), महादण्डनायक (सेनाध्यक्ष) ध्रुवभूति के पुत्र सान्धिविग्रहिक (विदेश मन्त्री), कुमारामात्य (अधिशासी अधिकारी- Executive officer), महादण्डनायक (सेनापति) हिरषेण के द्वारा विरचित सारे प्राणियों के
कल्याण एवं सुख के लिये हो। 33. और परमभट्टारक (समुद्रगुप्त) के चरणलीन महादण्डनायक (सेनाध्यक्ष
तिलकभट्ट ने (इसे लिखने का) अनुष्ठान किया।
32.
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