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हर्ष का बांसखेड़ा ताम्रपत्र
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18.
1.
15. महाराजभानुसमादेशा16. दुत्कीर्णमीश्वरेणेदमिति। 17. संवत् 20(+)2 कार्तिक व दि 1।
स्वहस्तो मम महाराजाधिराजश्रीहर्षस्य।
ओं कल्याण हो। महानौका, हाथी, अश्व के जय (उत्सव) शिविर से श्रीवर्धमान के पद से महाराज श्रीनरवर्धन, उनके पुत्र तथा चरणानुवर्ती श्री वज्रिणीदेवी से उत्पन्न परम आदित्य (सूर्य) भक्त महाराज श्रीराज्यवर्धन; उनके पुत्र तथा चरणानुवर्ती श्रीमती अप्सरोदेवी से उत्पन्न परम आदित्य भक्त महाराज श्रीमान् आदित्यवर्धन; उनके पुत्र तथा चरणानुवर्ती श्री(मती) महासेनगुप्ता देवी से उत्पन्न, चारों समुद्रों के पार तक प्रथितकीर्ति, प्रताप के अनुराग से जिसके अधीन हो अन्य नृप विनत हो गये हैं, जिसने वर्णाश्रम व्यवस्था का सूर्य के समान चक्र चला दिया (पथ प्रशस्त किया), प्रजा का संकट दूर करने वाला आदित्य का परम भक्त, परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीप्रभाकरवर्धन; उसका पुत्र तथा चरणानुवर्ती, जिसने अपनी शुभ्र कीर्ति-लता से सारी पृथ्वी को ढक दिया; कुबेर-वरुण-इन्द्र
आदि लोकपाल सा तेजस्वी, सन्मार्ग से उपार्जित अमित वित्त तथा भूमि के दान से जिसने अभ्यर्थियों के हृदय को प्रसन्न कर पूर्ववर्ती नपों से भी श्रेष्ठ चरित से सम्पन्न हो गया, विमल यश से सम्पन्न देवी श्रीयशोमती से उत्पन्न परम सौगत बुद्ध के समान केवल परहित में निरत परम भट्टारक महाराजाधिराज श्रीराज्यवर्धन; जिसनेयुद्ध (क्षेत्र) में पीठ पर कशाघात कर दुष्ट अश्व के समान श्रीदेवगुप्त आदि सारे नृपों को एक साथ बन्दी बना लिया। शत्रुओं को विनष्ट कर, पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर, प्रजा का प्रिय (कल्याण) कर, सत्यप्रिय होने से जिसने शत्रुओं के घर प्राण त्याग दिये। 1 उसका
अनुज तथा चरणानुवर्ती परममाहेश्वर (परम शैव), महेश्वर सा सारे प्राणियों 1. गौडाधिपेन मिथ्योपचारोपचितविश्वासं मुक्तशस्त्रमेकाकिनं विश्रब्धं स्वभवन एव भ्रातरं
व्यापादितमश्रौषीत्। हर्षचरित (कलकत्ता संस्करण), पृ. 436
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