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प्राचीन भारतीय अभिलेख प्रशस्तेर्वसतेश्चास्या जिनस्य त्रिजगद्गुरोः। कर्ता कारयिता चापि रविकीर्तिः कृती स्वयम्॥6॥ येनायोजि नवेऽश्मस्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म। स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः187॥ जो वृद्धावस्था, मृत्यु तथा जन्म से परे है, जिसके असीम ज्ञान समुद्र में सारा जगत् द्वीप सा लगता है उन भगवान् जिनेन्द्र की जय हो। 1 तदनन्तर चिरकाल से असीम चालुक्य कुल रूपी विस्तृत जलधि की जय हो जो पृथ्वी के मूर्धन्य (मूर्धालंकार की योग्यता वाले) श्रेष्ठ पुरुषों का उद्भव स्थल है। 2
और उस सत्याश्रय की चिरकाल तक जय हो जो वीर को केवल उपहार तथा विद्वान् को केवल सम्मान न देते हुए दोनों को एक साथ दोनों ही-उपहार तथा सम्मान देता था। 3 चिरकाल से जिनके लिये (अपने सुचरित तथा सुशासन के कारण) 'पृथ्वीवल्लभ' विरुद चरितार्थ हो रहा है उस (चालुक्य) वंश में विजय के इच्छुक अनेक नृपों के पश्चात्. . . .। 4 चालुक्य वंश में 'जयसिंह वल्लभ' नामक नरेश हुआ जिसने अनेक प्रकार के सैकड़ों आयुधों के प्रहार से हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिकों के चक्कर खाने तथा गिरने पर नाचते हुए भयंकर कबन्ध (धड़) तथा तलवार की किरणों से उठने वाली सहस्रों ज्वालाओं से पूर्ण रण में वीरता से स्वभावतः चञ्चल लक्ष्मी को भी अपने वश में कर लिया। 5 उसका पुत्र अलौकिक शक्ति से सम्पन्न तथा पृथ्वी का एकमात्र स्वामी रणराग हुआ। जिसके सो जाने पर, शरीर की विशालता एवं उसके तेज के कारण लोग उसे अलौकिक समझते थे। 6 उसका पुत्र पुलकेशी (प्रथम) हुआ जो चन्द्रमा के समान कान्तिमान् भी था तथा लक्ष्मी का प्रिय भी था। और जो वातापि (बदामी) नगरी रूपी वधू का वर बना। 7 जिसके (समान) धर्म, अर्थ तथा काम, त्रिवर्ग का अनुसरण आज भी पृथ्वी का राजवर्ग नहीं कर पाता। जिसने अश्वमेध सम्पन्न कर अवभृत (यज्ञ का समाप्तिसूचक) स्नान कर पृथ्वी प्राप्त की। 8 उसका पुत्र कीर्तिवर्मा हुआ जो नल, मौर्य तथा कदम्ब नृपों के लिये कालरात्रि (के समान) था। परस्त्री के प्रति उसकी चित्तवृत्ति अनासक्त थी। तथापि शत्रुओं की लक्ष्मी ने उसकी बुद्धि को
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