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प्रकाशधर्मा का रिस्थल शिलालेख
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अपने पितामह राजा विभीषणवर्धन के लिए श्लाघनीय भाव तथा पर्याप्त पुण्यफल समर्पित कर उसने (पौराणिक) बिन्दु सरोवर के प्रतिबिम्ब सा और वैसा ही विस्तृत यह विभीषण सर खुदवाया। ।। 9॥
और नर्तन की प्रचण्डता से स्खलित चन्द्रकला से प्रकट किरणों से आच्छादित गहरे नीले कण्ठ की कान्ति वाले तथा तीनों लोकों के निर्माता शिवजी का हिमालय की श्रेणी जैसा यह विशाल मंदिर बनवाया।। 20।।
पांच सौ बहत्तर (572) वर्ष पूर्ण होने पर ग्रीष्म के सूर्य-ताप से मुरझाई कामिनियों से युक्त धारागृहों (फव्वारा घरों) में जब कामदेव का प्रभाव बढ़ रहा था तब निर्दिष्ट होकर जिसने दशपुर (मन्दसौर) में वराह का प्रकाशेश्वर नामक मंदिर बनवाया जो भारतवर्ष का प्रतीक या पहचान बन गया।। 21-22।।
उसी नगर में ब्रह्मा का सुंदर मंदिर भी बनवाया जो मेघों को रोकने वाले अपने शिखरों से मानो आकाश को माप रहा है।। 23||
और उसने सांख्य तथा योग के चिन्तक यतियों के आश्रय के लिए कृष्णावसथ तथा बुज्जुकावसथ अर्पित किये।।24।।
सभा, कूप, मठ, उद्यान, देवों के मंदिर तथा अन्य कई का उस अन्याय से विमुख ने दानधर्म किया ।।25।।
उस राजा के पूर्वजों के उसी अमात्यपुत्र दोषरहित संगी (साथी) राजस्थानीय भगवद्दोष ने यह सागर जैसे आकार का सुविस्तृत तालाब खुदवाया और मेघों को उकेरने वाला (समुन्नत) शिवजी का यह मंदिर बनवाया।।26-271
जब तक वनस्पति के किसलयों को डुलाने वाला और सुरभित कुसुमों की गन्ध बहा ले जाने वाला समीर बहता है, तब तक यह अभिराम सरोवर और शिवजी का मंदिर निष्कण्टक मार्ग में कीर्ति का विस्तार करे।। 28।। . इस प्रकार उस पुण्यकर्मा राजा को प्रसन्न करने की कामना से कक्क के पुत्र वासुल ने यह पूर्वोक्त (प्रशस्ति) रची।। 29।।
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