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ईशानवर्मा का हड़हा शिलालेख
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सैन्य-सागर के प्रस्थान करने पर उसके चलने के क्षोभ से विदीर्ण होती
पृथ्वी से 14. उत्पन्न दिग्व्यापी धूल से सौर-मण्डल (सूर्य) की कान्ति अवरुद्ध हो जाती
है। दिन का आदि, मध्य तथा अन्त तीनों ही काल जिसने जगत् को अंधकार पूर्ण कर दिया; रात में प्रहर-ज्ञान के समान विजेताओं को नाडिका (जल-यन्त्र-घटिका) से ही समय व्यक्त हो पाता है। 14
कलियगु रूपी झंझावात से रगड़ खा (विचलित हो)कर 15. अज्ञात (गहन) रसातल-सागर में प्रवेश करती फूटी (भग्न) नौका के
समान पृथ्वी को चारों ओर से सैंकड़ों गुण (सद्गुण रूपी रज्जु) से बांधकर जिसने, बलपूर्वक खींच लिया। 15 रणक्षेत्र में प्रत्यञ्चा के आघात से पड़े घाव के कारण कठोर भुजा से खींचे धनुष से छूटे जिसके तीर शत्रुओं के प्राण निकालते रहे। और जिस नृप ने पृथ्वी पर शासन करते हुए कलियुगीन (अधार्मिक) प्रवृत्ति रूपी अंधकार को नष्ट कर दिया, उसने त्रयी से भी अधिक (श्रेष्ठ अथवा चौथे वेद) श्री सूर्यवर्मा को जन्म दिया। 16 जो नये बढ़ते चन्द्रमा की कान्ति से सम्पन्न सारे जगत् को आकर्षित करने वाले यौवन को धारण करता हुआ, मन से शांत है। शास्त्रों का मनन करने में ही जिसका मन लगा हुआ है तथा जो सारी कलाओं में पारंगत हो गया है। लोक में चहेते कामी के भाव में रस लेने वाली लक्ष्मी. कीर्ति. सरस्वती आदि कान्ताएं परम स्पर्धा से जिसका आश्रय प्राप्त किये हुए हैं। 17 कलियुग सुस्थित होकर अपनी अवनति को तब तक बलपूर्वक बढ़ाता रहा,
कामदेव के बाणों से 18. कामिनियों के शरीर पर (रतिज) क्षत (घाव) तब तक रहे, लक्ष्मी का
शत्रुओं के आश्रित होकर, असमय में (खंडित) होने का भय अथवा त्याग तब तक था जब तक विधाता ने इस (सूर्यवर्मा) की लोकधर्मीणी प्रिय देह न सरजी। 18 स्तनग्रह के भय से चकित (डोलते) नयनों वाली शत्रुओं की लक्ष्मी को
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