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प्राचीन भारतीय अभिलेख
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धीमां दक्षो दक्षिणः सत्यसन्धो ह्रीमाँच्छूरो वृद्धसेवी कृतज्ञः। बद्धोत्साहः स्वामिकार्येष्वसेदी निर्दोषोऽयं पातु धर्मं चिराया28 उत्कीर्णा गोविन्देन। सिद्धि हो। पिनाकधारी जगत्पति उस शिव की जय हो जिसकी मस्कराहट, वार्तालाप तथा गीति में स्फुटित दन्तकान्ति रात में चमकती विद्युत्कान्ति के समान इस विश्व को तिरोहित तथा प्रकट करती रहती है। 1 प्राणियों की स्थिति, विनाश तथा उत्पत्ति के कार्यों में नियुक्त ब्रह्मा भी भुवनों को धारण करने के लिये जिसकी आज्ञा वहन करते हैं तथा जगत् में जिसको महिमा प्रदान करते हुए पितृत्व दिया, वह शम्भु आपका प्रभूत कल्याण करे। 2 फण की मणियों के अत्यंत भार के कारण अत्यधिक अवनत जिसके सिर के चन्द्रमण्डल की कान्ति को क्षीण करते हुए (शिव) के शिर पर छिद्रमयी अस्थियों की माला बांधता है, विश्वनिर्माता शिवजी का वह सर्प आपके दुःख दूर करे। 3 जिसे सागर के साठ सहस्र पुत्रों ने खोदा तथा जो आकाश के समान कान्ति धारण करता है वह समुद्र इस (कूप) जलाशय के निर्माता के यश की चिरकाल तक रक्षा करे। 4 तदनन्तर राजा श्रीयशोधर्मा की जय हो जिसने प्रमदवन के समान शत्रु सैन्य में प्रवेश कर नूतन वृक्षलता के समान वीर कीर्ति को झुकाकर व्रण रूपी किसलय-आभूषण से अङ्गों को शोभित किया। 5
और तदनन्तर युद्ध में विजय पाकर जगत् के विजेता उसी राजा विष्णुवर्धन (अपर नामधारी यशोधर्मा) की जय हो जिसने अपने औलिकर नामक श्रेष्ठ एवं प्रख्यात वंश को उन्नतोन्नत पद पर पहुंचा दिया। 6 जिसने पूर्व के महान् तथा उत्तर के अनेक नृपों को शांति तथा युद्ध से अपने अधीन कर जगत् में दुर्लभ एवं कमनीय राजाधिराज परमेश्वर उपनाम धारण किया। 7 होताओं की घृताहुति के समान शोभन एवं काले मेघों के समान धूम से सूर्य
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