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यशोधर्मा विष्णुवर्धन का मन्दसौर शिलालेख
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को आच्छन्न करने वाले, इन्द्र के द्वारा समुचित अवसर पर वर्षा की जाने से अन्न से अत्यन्त सम्पन्न, शृंगारप्रिय स्वेच्छाचारिणी (वाणिनी) वनिताओं के हाथों से हड़बड़ी में तोड़े जाने वाले उद्यान के आम्र के बौर आदि से सम्पन्न और राजा के भुजबल से विजित अनेक देश इसके द्वारा नियुक्त अधीनस्थ नृपों से मुक्त हो (हर्षामोद से) क्रीड़ा कर रहे हैं। 8 ऊंची पताकाओं वाली, उन्मत्त गजों की सूंड से लोघ्र वृक्षों को उखाड़ने वाली, अपने गर्जन से विन्ध्य की गुहाओं को प्रतिध्वनित करने वाली
जिसकी सेना 9. गधे के वर्ण के समान, धूमिल (भूरी) धूलि में से मन्द प्रभा वाला
सूर्यमण्डल, उलटे मोरपंख के चन्द्र सा मलिन दिखाई देता है। 9। उस नप के वंश के नृपों के चरणाश्रय से प्रथित एवं पावन कीर्ति वाला
सेवक षष्ठिदत्त था जिसने अपनी नम्रता से (काम आदि) छः शत्रुओं 10. को जीत लिया था तथा जो धन से सम्पन्न था। 10
जैसे हिमालय से गंगा का समुन्नत एवं नम्र प्रवाह एवं चन्द्रमा से जैसे नर्मदा की जलराशि फैली तथैव परम महिमाशाली (षष्ठिदत्त) से नैगम (व्यापारियों
के समूह) के लिये उन्नति शाली गरिमामय विशुद्ध वंश का प्रसार हुआ।lll 11. कुलीन पत्नी से उसे उसके अनुकूल पुत्र उत्पन्न हुआ जो यश का स्रोत था
एवं विष्णु के अंश के समान जितेन्द्रिय एवं सुयोग्य था। 12 सत्कर्म तथा ज्ञान से समुन्नत, पृथ्वी पर सुस्थिर, अविनाशी स्थिरता की चरमसीमा धारण करने वाला, पर्वत के शिखर के समान समुन्नत उस कुल को अपने ऐश्वर्य से रवि के समान रविकीर्ति ने आलोकित कर दिया। शुभ्र, अविनाशी, स्मृति के अनुकूल, सज्जनों के पथानुकूल आचरण करते
हुए जिसने, 13. कलियुग में भी कुलीनता को कलंकित नहीं किया। 14
मेधा की किरणों से (अज्ञान) अन्धकार को विनष्ट करने वाले अनल यज्ञ के समान तीन पुत्रों को उससे उसकी साध्वी पत्नी ने उत्पन्न किया।। 15 उनमें से प्रथम का नाम भगवद्दोष था जो कार्यपद्धति में
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