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प्रकाशधर्मा का रिस्थल शिलालेख
20 एतज्जलनिधिहेपि विशालं खानितं सरः । इदञ्च जलदोल्लेखि शूलिनस्सद्म कारितम् ॥27॥ किसलयपरिवर्ती वीरुधां वाति यावत् सुरभिकुसुमगन्धामोदवाही नभस्वान् ।
21. सर इदमभिरामं सद्म शम्भोश्च तावद्विहतदुरितमार्गे कीर्त्तिविस्तारिणिस्ताम्॥28॥ इति तुष्टुषया तस्य नृपतेः पुण्यकर्म्मणः । वासुलेनोपरचिता पूर्व्वेयं कक्कसूनुना ॥ 29 ॥
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शिवजी का दायां वह शान्त शरीर आपका कल्याण करे जो बायीं ओर से पार्वती से आधा संयुक्त (अर्धनारीश्वर ) है और जो उनके संध्या को नमन करने के कारण पार्वती के कोप के भाजन बन गये हैं। 1
धरती की महिमा के लिए रणक्षेत्रों में जो प्रत्यंचा चढ़ा धनुष बारम्बार धारण करता है - नृपों में श्रेष्ठ, अपने कुल के केतु ( पताका) इस भगवत्प्रकाश की जय हो ॥ 2 ॥
जगत् की स्थिति का धाम, धर्मसेतु और ( पूरे) औलिकर वंश का चीन्ह द्रुमवर्द्धन राजा हुआ जिसने अपने प्रभाव से शत्रुबल को नष्ट कर दिया था ।। 3 ।। शिवजी के सिर पर जैसे तुषारवर्षी, शीतल तथा विमल किरणों वाला चन्द्रमा शोभित होता है उसी प्रकार अपने वंश में श्रेष्ठ इस पर सेनापति शब्द स्पृहणीय हो
गया ।। 4 ।।
सुनीति के बल पर जिसने अपनी भुजाओं से सुप्रसिद्ध शक्ति और सम्पदा को दृढ़ किया - उसने शत्रुजयों के हर्ता पुत्र जयवर्धन को उत्पन्न किया ।। 5 ।।
जिसकी गजकंठ जैसी प्रचुर सैन्यधूलि से आकाश चारों ओर से ऐसे परिवेष्टित हो गया जैसे मेघों से। तब क्या सूर्यकिरणें रुक नहीं गयीं ? ।। 6 ।।
इसका पुत्र अजितवर्धन हुआ। शत्रुनृपों के मुकुटों के रत्नों से फिसलती सूर्यकान्ति वाले सिरों पर जिसकी आज्ञा प्रतिष्ठित थी तथा जिसने शत्रुबल से पौरुष अर्जित किया ।। 7 ।।
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जिसके यज्ञों में सोमासव-पान की लालसा से बारम्बार आये इन्द्र के वियोग की चिन्ता से आकुल मन वाली शची हथेली पर मुख टिकाए (विरह से ) व्यथित
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