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समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख
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आर्जुनायन (मथुराक्षेत्र में इनके सिक्के मिले हैं), यौधेय (भरतपुर का क्षेत्र तथा सतलज के तट पर जोहियाबाज के निवासी, मद्रक (मूलत: शाकल वासी), आभीर (अपरान्त वासी), प्रार्जुन (मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के निवासी), सनकानिक (पूर्वी मालव के निवासी), काक (सम्भवतः काकनादबोट (सांची क्षेत्र) के निवास, खरपरिक (दमोह जिले के निवासी?) आदि (जाति अथवा इसके नृपों) ने सारे कर देकर, आज्ञाकारी एवं उपस्थित होकर प्रणाम करके प्रचण्ड (प्रतापशाली) शासक को सन्तुष्ट किया, अनेक उच्छिन्न राज्यों के विनष्ट (उजड़े) राजवंशों को पुनः (अपने राज्य में) स्थापित कर सारी पृथ्वी पर फैलता हुआ आश्चर्यकारी एवं शान्त यश प्राप्त किया। दैवपुत्र षाहि षाहानुषाहि शक-मुरुण्ड (अथवा शक एवं मुरुण्ड) तथा सिंहल (जावा,
सुमात्रा!) आदि 24. सारे द्वीप के निवासियों ने आत्म समर्पण तथा कन्याएँ (स्वयं) लाकर दान
कर (गुप्तों के राजकीय) चिह्न से युक्त अपने विषय (प्रदेश) के उपभोग एवं (उस पर) शासन करने की याचना की। (इन) उपायों से उसकी सेवा प्राप्त करते हुए उसने अपने भुजबल के प्रसार से (सारी) धरती को बांध
लिया, पृथ्वी का (अप्रतिद्वन्द्वी) बेजोड़ योद्धा, 25. सैकड़ों सुचरितों से शोभित अनेक गुण-समूहों के सिञ्चन से अन्य नृपतियों
की कीर्ति को पैरों (चरण तल से) रौंदने (पौंछने) वाला; सज्जनों की उन्नति तथा दुष्टों को नष्ट करने में जो विष्णु है, भक्ति से अवनत होने मात्र से जिसका कोमल हृदय वशीभूत हो जाता है, जो दयावान् है तथा लाखों
गायें दान करने वाला है। 26. असहाय, दीन, अनाथ, दुःखी जनों के उद्धार की मन्त्रदीक्षा में जिसका मन
प्रबल रूप से लगा है, जो सशरीर (साक्षात्) लोकानुग्रह (जन-कल्याणकारी) है, जो कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा यमराज के समान है, अपने भुजबल से विजित अनेक नृपों से उपहार में प्राप्त वैभव (को समेटने) में जिसके
अधिकारीगण नित्य लगे रहते हैं। 27. बुद्धि की तीक्ष्णता एवं विद्वत्ता, गान्धर्व (संगीत) आदि लालित्य से जो 1. लोकानुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणोः। रघुवंश, 10/31
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