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समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख
8. स्नेहाधिक्य के कारण परिवृद्ध आंसुओं से भरी तत्त्वदर्शी डोलती आंखों से
हृदय से लगाकर देखते हुए पिता ने यह कहा 'आओ आओ, इसी प्रकार (सम्यक् रूप से) सारी पृथ्वी का पालन करो। 4 कुछ तो उसके अनेक अति (अ)मानवीय जैसे कर्मों को देखकर आश्चर्यान्वित
हर्ष (भाव) का आस्वादन करते थे तथा, 10. कुछ उसके प्रताप (शक्ति) से संतप्त होकर दीन बने शरण जाकर प्रणाम
करने लगे। 5 11. नित्य (आये दिन) धनुष ऊंचा करने वालों (सामना करने वाले विद्रोहियों
अथवा शत्रुओं) को अपने भुजबल से जीत लिया। कल कल मान. . . 12. सन्तोष से उन्नत तथा छलकते अमित रस-भरित स्नेह से प्रफुल्ल मन से
(प्रजा जनों ने हृदय में) बसे पश्चात्ताप (का त्याग किया)। 6 13. अपने बढ़े हुए असीम भुजबल के वेग से जिसने एक क्षण में ही अच्युत,
नागसेन, ग(णपति आदि नृपों को समर से) उखाड़ फेंका। 14. पाटलिपुत्र में खेल खेल में ही (लीलया अथवा क्रीडानिरत) समुद्रगुप्त ने
सेना से कोत कुल में उत्पन्न राजा को बन्दी बनवा लिया। 7 15. जो धर्म की प्राचीर बांधने वाला (धर्म को प्राचीर या सीमा में बांधने वाला)
है तथा जिसकी चन्द्रमा की किरणों के समान अमल कीर्ति फैल रही है,
जिसकी विद्वत्ता (की पहुंच यथार्थ तक) तत्त्वभेदिनी है। 16. जो वैदिक पथ (ग्रन्थों) का अध्येता है और जिसका काव्य कवियों के बुद्धि
वैभव (कवि के अहं) को चूर चूर करने वाला है। एक भी ऐसा कौन सा गुण है जो इसमें नहीं है और (इसीलिये) यह पारंगत विद्वानों का भी
एकमात्र ध्यानपात्र (स्मरणीय अथवा आदर्श) बन गया है। 8 17. जो विविध समर (प्रांगण) में सैकड़ों बार उतरने में पटु है, जिसका अपना
भुजबल तथा पराक्रम ही एकमात्र बन्धु, जो पराक्रमाङ्क है, जिसकी काया की कान्ति कुठार, तीर, शूल, शक्ति (बी), भाला, तलवार, तोमर
(लोहदण्ड), 18. छोटा भाला (गुप्ति?) अथवा गोफण, लोहशल्य का बाण, वैतस्तिक
(आयुध) आदि के अनेक प्रहार से उत्पन्न सैंकड़ों गम्भीर घावों के चिह्नके शोभा-समूह के उदय से बढ़ गयी है,
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