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प्राचीन भारतीय अभिलेख धिराजश्रीसमुद्रगुप्तस्य-सर्व-पृथिवी-विजय-जनि-तोदय-व्याप्त
निखिलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति30. भवन-गमनावाप्त-ललित-सुख-विचरणामाचक्षाण इव भुवो
बाहुरयमुच्छ्रितः स्तम्भः। यस्य। प्रदान-भुजविक्क्रम-प्रशम
शास्त्रवाक्योदयै-रुपर्युपरि- संचयोच्छ्रितमनेकमार्ग यशः। 31. पुनाति-भुवनत्रयं पशुपते टान्तर्गुहा-निरोध-परिमोक्ष-शीघ्रमिव
पाण्डु गांगं पयः॥ (9) एतच्च काव्यमेषामेव भट्टारकपादानां दासस्य समीप
परिसर्पणा-नुग्रहोन्मीलित-मतेः 32. खाद्यटपाकिकस्य महादण्डनायक-ध्रुवभूतिपुत्रस्य सान्धिवि
ग्रहिक-कुमारामात्य म( हादण्डनाय)क-हरिषेणस्य सर्वभूत
हित-सुखायास्तु33. अनुष्ठितं च परमभट्टारकपादानुध्यात-महादण्डनायक
तिलभट्टकेन।
(जो) अपने वंश के ... 2. (जिसका?) . . . .॥1
3.
. . .
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फड़कते हुए (?). . . स्पष्ट ही नष्ट कर दिया. . .फैला दिया।।2 मेधा (विद्या) प्रति आसक्ति में ही जिसका मन समुचित सुख पाता रहा तथा जो शास्त्र के तत्त्वार्थ (यथार्थ) का अधिकारी वेत्ता है. . .। जो उत्तम काव्य की शोभा के विरोधी (क्षयकारक) (तत्त्वों) को विद्वानों के द्वारा निर्दिष्ट (सत्काव्य के) गुणों से आहत करके विद्वज्जगत् में स्फुट (प्रासादगुणमयी) अनेक कविता (की रचना से उपलब्ध) अक्षय (अमर) कीर्ति-राज्य का भोग कर रहा है। 3 सुख की सांस लेते हुए सभासदों के मध्य, समान (उसी गुप्त) कुल में उत्पन्न जनों के मुरझाये चेहरों के द्वारा देखे जाते हुए जिसे भाव विभोर, रोमाञ्चित,
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