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स्कन्दगुप्त का भितरी शिलालेख
119 हूणैर्यस्य समागतस्य समरे दोर्थ्यां धरा कंपिता भीमावर्तकस्य 16. शत्रुषु शरा ....। ..... विरचितं(?) प्रख्यापितो (दीप्तिदा?). . . ?
न द्यो (?) ति न भी( ? )षु लक्ष्यत इव श्रोत्रेषु गाङ्गध्वनिः।।8 17. (स्व) पितुः कीर्ति .....।
....... . ७॥
(कर्तव्या) प्रतिमा काचित्प्रतिमां तस्य शाङ्गिणः। 18. (सु)प्रतीतश्चकारेमा या विदाचन्द्र-तारकम् )10
इह चैनं प्रतिष्ठाप्य सुप्रतिष्ठित-शासनः।
ग्राममेनं स विद( धे) पितुः पुण्याभिवृद्धये। 19. अतो भगवतो मूर्तिरियं यश्च संस्थितः ()।
उभयं निर्दिदेशासौ पितुः पुण्याय पुण्य-धीरिति॥ 12 सिद्ध हो। सारे राजाओं का उच्छेद करने वाला, पृथ्वी का अप्रतिम योद्धा, जिसके यश ने चारों समुद्र के जल का आचमन किया है; जो कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा यम के समान है, जो कृतान्त परशु (यमराज के कुठार सा) है तथा जिसने न्याय से प्राप्त अनेक करोड़ गो तथा स्वर्ण का दान किया, जिसने चिरकाल से त्यक्त अश्वमेध किया; जो महाराज श्रीगुप्त का प्रपौत्र, महाराज श्रीघटोत्कच का पौत्र, महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त का पुत्र तथा लिच्छवि कुल के दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त का पुत्र, उनके द्वारा मान्यता (आशीर्वाद) प्राप्त, महादेवी दत्तदेवी से उत्पन्न, स्वयं अप्रतिम योद्धा परम भागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त का पुत्र जो उनका चरणानुयायी है तथा जो महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न हुआ है, वह परम भागवत महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्त है-, जिस नृप की अगाध मेधा, स्वभाव तथा शक्ति प्रसिद्ध है, जिसका यश अमिट है, जो अपरिक्षित श्री (धन) से सम्पन्न है
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