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प्राचीन भारतीय अभिलेख
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आघात कर राजगृह को त्रस्त किया। इस (विजय) कर्म की निष्पत्ति की बात सुनकर यवनराज डिमित (दिमित) सेना तथा वाहन छोड़कर (भय से) मथुरा (की ओर) भाग खड़ा हुआ। . . .देता. . .पल्लव से युक्त . . कल्पवृक्ष के समान (श्री खारवेल) अश्व-गज-रथों के साथ जाते हुए सब घरों को बसाता (विजित प्रजा को पुनः अपने घरों में बसाता) और सर्वग्रहण (सब कुछ दान) करवाने के लिये ब्राह्मणों को जय (के उपलक्ष में) परिहार (गांव या नगर के आसपास का सामान्य भूखण्ड अथवा विशेष दान) दिया। (और नौवें वर्ष) अढ़तीस लाख (मुद्राओं के खर्च) से महाविजय प्रासाद बनवाया। और दसवें वर्ष, दण्ड, सन्धि तथा साम से युक्त (अपनी सेना को) भारतवर्ष को जीतने के लिये . . .(उन्मुख) करवाया। और ग्यारहवें वर्ष ...(रणक्षेत्र अथवा राजधानी छोड़कर) भागते हुए (शत्रुओं) के मणि-रत्न प्राप्त किये। पहले (जो) राजधानी (थी उस) पिथुण्ड पर गधों के हल चलवा दिये (तथा उसे मिट्टी में मिला दिया) और तेरह सौ वर्षों से जनपद के रूप में स्थित त्र(ति)मिर देश के समूह (संघटन) को तोड़ (भेद) दिया। और बारहवें वर्ष . . . (अपनी लाखों) हजारों (की सेना) से उत्तरापथ (उत्तर-पश्चिम भारत) के राजाओं . . . . तथा मगध (के राजा अथवा लोगों) में विपुल भय उत्पन्न करते हुए (अपने) हाथी-घोड़ों को गंगा का पानी पिलाया और मगध के राजा बृहस्पतिमित्र से (अपनी) चरणवन्दना करवायी और नन्दराज के द्वारा ले जायी गयी कलिङ्ग जिन (कलिंग की जिन मूर्ति) को (पुनः लाकर) सन्निवेश (देवायतन अथवा नगर के निकट के मैदान में स्थापित) किया तथा अंग (पूर्वी बिहार) एवं मगध की दौलत ले गया। बीस सौ (दो सहस्र) मुद्राओं से दृढ़ तथा सुंदर गोपुर (तोरण तथा उनके) शिखर बनवाये और विभिन्न तथा आश्चर्यकारक हस्तिनिवास (हाथीखाना) बनवाया (अलंकृत किया) . . . .अश्व, गज, रत्न, माणिक्य। पाण्ड्यराज से. . .यहां लाखों मुक्ता, मणि, रत्न प्राप्त किये।। निवासियों को अपने वश में कर लिया। और तेरहवें वर्ष, जब विजय परम्परा सुव्यवस्थित (सम्पन्न) हो चुकी तब कुमारी पर्वत (उदयगिरि-खण्डगिरि)
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