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खाखेल का हाथीगुम्फा लेख
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पन्द्रह वर्ष तक कुमार (बाल) क्रीड़ा की। तब लेखनविद्या, रूपगणना (मुद्रापरिचय), गणित, व्यवहार-विधि (विवाद-मीमांसा) विद्या में निष्णात, सारी विद्याओं में पारंगत (होकर) नौ वर्ष तक युवराज पद से शासन किया। चौबीस वर्ष पूर्ण हो गये तब महाराज पृथु के समान बचपन से ही विजयों से समुन्नत होते हुए कलिंगराज के वंश की तीसरी पीढ़ी में महाराज-अभिषेक प्राप्त किया। अभिषेक होते ही पहले वर्ष कलिङ्ग की राजधानी खिबीर (?) में वातविहत (?) गोपुर, प्राकार, सदन आदि का पुनः संस्कार (पुनरुद्धार) करवाया। शीतल तालाबों की पालें बंधवायीं। सारे उद्यान फीर से लगवाये, पैंतीस लाख (मुद्राओं) से और (इस प्रकार) प्रजा का रञ्जन किया। और दूसरे वर्ष सातकर्णि (के शौर्य) की चिन्ता न कर पश्चिम दिशा में, घोडे, हाथी, पैदल तथा रथों की बहुलता वाली अपनी सेना को रवाना कर दिया।
और कृष्णा नदी के तट पर जाकर सेना ने ऋषिक नगर को (त्रस्त कर) जीत लिया। फिर तीसरे वर्ष गन्धर्व (संगीत) एवं ज्ञान (अथवा वेद) के वेत्ता (खारवेल) ने दर्प (मल्लयुद्ध विशेष अथवा हास्याभिनय), नृत्य, गीत, वाद्य (आदि) के आयोजन से तथा उत्सव, समाज आदि की व्यवस्था से राजधानी को रिझाया (आनन्दित किया) और चौथे वर्ष कलिंग के प्राचीन राजाओं का (परम्परागत) विद्याधराधिवास नामक (प्रासाद तथा जो) पहले क्षतिग्रस्त हो गया था, (का संस्कार करवाया) तथा सारे राष्ट्रिक (प्रान्तीय राज्यपाल) तथा भोजक (जागीरदार) ने अपने छत्र तथा (अभिषेक के) घट अथवा झारियां हटा (छोड़) दी एवं रत्नादि सम्पत्ति समर्पित कर चरण वन्दना करने लग गये (अधीन हो गये)। और अब पांचवें वर्ष, तीन सौ वर्ष पूर्व नन्दराज के द्वारा निर्मित नहर को (सुधरवाकर) तनसुलिय (तृणसूर्या?) पथ से नगर में ले आया। और अभिषेक से छठे वर्ष अपने राज-ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते हुए, सब प्रकार तथा (चारों) वर्गों पर अनुग्रह कर अनेक लाख (मुद्राएं) बांट दीं। और सातवें वर्ष प्रशासन करते हुए. . . । और आठवें वर्ष विशाल सेना से गोरथगिरि पर
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