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प्राचीन भारतीय अभिलेख
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चद-दिवाकर-नखत- गह-विचिण-समरसिरसि-(ऋषयोदेवगन्धर्वाः सिद्धाश्च सह चारणैः। रामा० २/२४/१९) जितरिपुसघस नागवर-खघा गगनतलमभिविगाढस कुल-विपु (लसि)रि-करस सिरिसातकणिस मातुय महादेवीय गोतमीय बलसिरीय सचवचन-दान-रवमहिसा-निरताय तप-दम-निय मोपवास-तपराय राजरिसिवधु-सदमखिलनुविधीयमानाय कारित-देयधम (केलासपवत )सिखरसदिसे (ति )रण्हु-पवतसिखरे विम (नि)वरनिविसेस महिढीकं लेण। एत च लेण महादेवी महाराज-माता महाराज-(पितामही ददाति निकायस भदावनीयान (भद्दयानिक शाखा-बौद्धों की। भद्रयानिक स्थविरवादियों की एक शाखा थी) भिखु-सघस। एतसच लेण(स) चितण-निमित महादेवीय अयकाय सेवकामो पियकामो च ण (ता) (सिरि-पुलुमावि) (दखिणा) पथेसरो पितु-पतियो (पितिये) घमसेतुस (ददा)ति गामं तिरण्हु-पवतस अपर-दक्षिण-पसे पिसाजिपदक सव जात-भोग-निरठि (ठं)। सिद्धि हो। राजा वासिष्ठीपुत्र श्रीपुलुमावि के (राज्य के) उन्नीसवें वर्ष के ग्रीष्म (चैत्र) के शुक्ल पक्ष के तेरहवें दिन राजाओं के राजा गौतमी पुत्र का; जो हिमालय, सुमेरु तथा मन्दर पर्वत के समान सार वान् (शक्तिमान्) है, जो ऋषिक (अश्मक के दक्षिण में कृष्णा-गोदावरी के मध्य), अश्मक (नान्देड, निजामाबाद क्षेत्र), मूलक (प्रतिष्ठानपुर के आसपास का क्षेत्र), सुराष्ट्र, कुकुर (उत्तरी काठियावाड), अपरान्त (उत्तरी कोंकण), अनूप (निमाड क्षेत्र), विदर्भ, (बरार) तथा अवन्ति का स्वामी; विन्ध्य, ऋक्षवान्, पारियात्र, सह्य, कृष्णगिरि, मत्स्य, श्रीस्तन (या श्रीस्थान), मलय, महेन्द्र, श्रेष्ठगिरि तथा चकोर पर्वत का स्वामी; सारे नृपसमूह जिसका आदेश स्वीकार करते हैं, जिसका मुख सूर्य किरण से विकसित कमल के समान, विमल है, जिसके वाहनों (अश्वों) ने तीनों समुद्रों का जलपान किया है, पूर्ण चन्द्र-मण्डल की कान्ति कं समान जिसका
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