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श्रीकुन्थुनाथ, श्रीअरनाथ, श्रीमल्लिनाथ, श्रीमुनिसुव्रतस्वामी, श्रीनमिनाथ, श्रीअरिष्टनेमि, श्रीपार्श्वनाथ तथा श्रीवर्द्धमानजिन ( श्रीमहावीरस्वामी )को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ४ ॥
इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, कर्मरूपी मलसे रहित और ( जन्म ), जरा एवं मरणसे मुक्त, चौबीसों जिनवर तीर्थङ्कर मुझपर प्रसन्न हों ॥ ५ ॥ ___ जो लोकोत्तम हैं, सिद्ध हैं और मन-वचन-कायसे स्तुति किये हुए हैं, वे मेरे कर्मका क्षय करें, मुझे जिन-धर्मकी प्राप्ति कराएँ तथा उत्तम भाव-समाधि प्रदान करें ॥६॥
चन्द्रोंसे अधिक निर्मल, सूर्योसे अधिक प्रकाश करनेवाले, स्वयम्भूरमण समुद्रसे अधिक गम्भीर ऐसे सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि प्रदान करें ।। ७॥
सूत्र-परिचय
उक्त सूत्रमें चौबीस तीर्थङ्करोंकी स्तुति की गयी है, इसलिये यह सूत्र 'चउवीसत्थय-सुत्त' अथवा 'चतुर्विंशति-जिन-स्तव' के नामसे प्रसिद्ध है।
सूत्रकी पहली गाथामें बताया है कि मैं चौबीसों केवली भगवानोंकी स्तुति करता हूँ, वे लोकके प्रकाशक है अर्थात् विश्वके समस्त पदार्थोंका वास्तविक स्वरूप जाननेवाले हैं, धर्मरूपी तीर्थकी स्थापना करनेवाले हैं, जिन हैं और अर्हत् हैं।
सूत्रकी दूसरी, तीसरी और चौथी गाथामें चौबीस तीर्थङ्करोंके नाम लेकर वन्दना की गयी है और पाँचवों, छठी तथा सातवीं गाथामें उनसे प्रार्थना की गयी है।
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