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जैसे
सच्छेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मंदि कुणास ।
सम्वनि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥ २८४॥
इसी तरह सादृश्य लिये हुए अनेक गाथाएँ एक साथ कुन्दकुन्ददेव रखते हैं ।
जह सेडिया दुण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ । तह जाणओ दु ण परस्स जाणओ जाणओ सो दु ।। ३५६ ॥
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होई ।
तह पासओ दुण परस्स पासओ पासओ सो दु ।। ३५७।।
इसी तरह की गाथायें और हैं ।
इसी प्रकार से प्रवचनसार ग्रन्थ में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने २७५ गाथाओं की टीका रची है। श्री जयसेनाचार्य ने इस ग्रन्थ में भी तीन सौ ग्यारह (३११) गाथाओं की टीका की है । यथा
" इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ एवं पूर्वोक्तक्रमेण "एस सुरासुर..." इत्याद्येोत्तरशतमाथापर्यन्तं सम्यग्ज्ञानाधिकारः, तदनन्तरं " तम्हा तस्स गमाई इत्यादि त्रयोदशोत्तरशत गाथापर्यंतं ज्ञयाधिकारापरनाम सम्यक्त्वाधिकारः, तदनन्तरं " तवसिद्धे णयसिद्धे" इत्यादि सप्तनवतिगाथापर्यन्तं चारित्राधिकारश्चेति महाधिकार-त्रयेणेकादशाधिकत्रिशतगाथाभिः प्रवचनसार प्राभृतं समाप्तं ।"
इस ग्रन्थ में जयसेनाचार्य ने जो अधिक गाथाएँ मानी हैं, उन्हें अन्य आचार्य भी श्री कुन्दकुन्द कृत ही मानते रहे हैं । जैसे-
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तेजो दिट्टी गाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईहरियं । तिहुवण पहाण दइयं माहृप्पं जस्स सो अरिहो ॥
इस गाथा को नियमसार ग्रन्थ की टीका करते समय श्री प्रज्ञप्रभ मलधारीदेव ने भी लिया है। यथा
तथा चोक्तं श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव: 2तेजो दिट्ठी गाणं इड्ढी सोक्खं...।
श्री जयसेनाचार्य प्रत्येक अधिकार के आरम्भ में और अन्त में गाथाओं की संख्या और उनका सन्दर्भ वार-बार देते रहते हैं । यह बात उनकी टीका को पढ़नेवाले अच्छी तरह समझ लेते हैं । ऐसे ही पंचास्तिकाय में भी श्री अमृतचन्द्रसूरि मे १७३ गाथाओं की टीका रची है, तथा श्री जयसेनाचार्य ने १६१ गाथाओं की टीका लिखी है ।
इन तीनों ग्रन्थों में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने उन गाथाओं को क्यों नहीं लिया है, उन्हें
१. प्रवचनसार, पृ. ६३७
२. नियमसार, गया ७ की टीका, पृ. १८
२५ / भूलाचार
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