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आलोचनात्मक मूल्यांकन
[35 गिजाइ मदरं साता सरालं,
वह पेम्म पसरा प्रसरात ।" (70115) संस्कृत के 'अजस्त्रतर' से विकसित 'असराल' की तुलना कबीर के प्रयोग 'न सोइए असराल' से कीजिए, और देखिए
"मगुणिज्जा रुसंति पिपल्ली,
वाविना वपसुहेल्ली।" (70/15) पुष्पक विमान के वर्णन की शैली निराली है
"सारयाऊरियायाससकास बबुजलुल्लोपर्य
हेमघंटाविस तष्टंकारसंतासिशसाग ।" (7211) और, पुष्पदन्त की यह शैली जो उन्हें स्वयं अत्यन्त प्रिय रही है
"वगु वीसह जिम्मल भरिय सर, सीयहि जोवणु निक महरसर । वषु बीसइ संचरस कम,
सोहि जोष्वगु वरमुहकमलु ।" (72/2) राम वन में सीता के विषय में पूछ रहे है
"सई कामणि रई हिंम्माण, पुच्छह वणि मिगई प्रमाणमाण। रेहंस-हंस सा हंसगमण
पई पिछी कल्पह पिलरमण ।" (73/4) जिनभक्ति की सरस प्रौली, जिसमें क्रिया का प्रयोग नहीं है
"ण भीएस पंखा, गणिवा ण भुक्खा। ग सहा प सोओ, ग राओ ण रोयो। (73/9)
जब कभी भारतीय आर्यभाषा के विकास के सन्दर्भ में यह तर्क दिया जाता है कि प्राकृत की तुलना में संस्कृत कृषिम भाषा थी। इसी प्रकार अपभ्रश काव्य की भाषा थी, बोलचाल की नहीं। कोई भाषान तो कृत्रिम होती है और केवल काष्प की भाषा होती है । संस्कृत की तुलना में प्राकृत कितनी ही सहा व्यापार वाली भाषाएँ हों, उस वचन-व्यापारों की भी अपनी भाषागत व्यवस्था होती है। इसी प्रकार संस्कृत कृत्रिम भाषा नहीं है, परन्तु जो भाषा बोलवाल में थी (बह कौन थी इसका विवेचन विद्वान् अपने-अपने कोण से करते हैं) उसे संस्कारित किया गया, यानी समय-प्रवाह और प्रयोग के कारण आनेवाली विभिन्नताओं में उसे स्पिरता प्रदान की गई।