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महाकवि पुष्पदन्त मिरवित महापुराण
[77.6.11 अरिहरिण मिलेप्पिणु कि करंति असिणहरझडप्पिय धुउ मरंति.। धवा पावउ भुक्खिय पलयमारि पहणाविय लहुं संणाहभेरि । घत्ता-विरसंतई गरकरयलयई तूरई गाइ कहति दसासहु ।।
राहवहु सीय णउ दिण्ण पई कि उक्कंठिउ वइवसवासहु ।।611
हेला—कंचणकवयसोहिओ णवतमालवण्णो ।।
संझारायराइओ णं घणो रवण्णो ॥छ।। संणज्झमाणु रिउतासणेण
भडु सोहइ दिवसरासणेण। असिविज्जुइ विमलइ विप्फुरंतु जीविययरु जीवणु जणहु दितु । भडु को वि णिहालइ वाणपत्तु लइ एयहु एवहि रिउ जि पत्तु। भड़ को विपलोवइ तोणजम्म ण रणसिरिऊरूजुयलु' रम्मु । भडु को वि मुयइ संणाभारु कि कासु वि रुच्चइ लोहसार। कासु वि पइसरइ । पुलइयान सो अवणुि व सुयणसंगि। कि धणुणा कयवहुसंझएण
चरणेण वि आहबवकएण। भड़ को वि भणइ हउं कोतवाहु कोते वाहमि रिउरुहिरवाहु। 10
मायंगभु णिहिकु भुजेव हर्ष फोडमि अज्जु गयाइ तेव। मेरी तलवार रूपी नख के मपट्टे में पड़कर वह निश्चित रूप से नाश को प्राप्त हो जाएगा। भूखी महामारी तृप्ति को प्राप्त होगी। उसने शीध्र प्रस्थान की रणभेरी बजवा दी।
पत्ता--मनुष्यों के हाथों से आहत और बजते हुए तूर्य मानो रावण से कह रहे हैं कि तुमने राम की सीता नहीं दी, तुम यम के निवास के लिए उत्कंठित क्यों हो?
(7) स्वर्णकवच से शोभित नव-तमाल वृक्ष के समान वर्णवाला रावण ऐसा लगता था मानो संध्याराग से शोभिन सुन्दर वन हो । शत्रु को त्रास देनेवाले दिव्य धनुष से तैयार होता हुआ वह सुभट शोभित हो रहा था। विमल तलवार रूपी बिजली से चमकता हुआ तथा मेघ की तरह जीवन (पासवृत्ति और जल) देता हुआ कोई योद्धा बाणपुख देखता है कि लो इससे अभी शत्रु प्राप्त हुआ। कोई सुमट तरकस युग्म को इस प्रकार देखता है मानो रणलक्ष्मी का सुन्दर उरुयुगल हो। कोई योद्धा कवचभार को छोड़ देता है। क्या किसी को भी लोहभार अच्छा लगता है ? किसी के पुलकिस शरीर में वह (कवच) प्रवेश नहीं करता, सुजन का संग होने पर वह दुष्ट की तरह नष्ट हो जाता है । बहु (बहुत, बवू) की आशंका करने वाले धनुष से क्या? युद्ध में वक्र चलने वाले परण से क्या ? कोई सुभट कहता है कि मैं कोंत धारण करता हूँ, कोत से मैं शत्रु के रूधिर को प्रवाहित करूंगा। निधियों के घड़ों की तरह मैं आज गदा से गजकुभों को फोड़गा। कोई सुभट 6.AJणयर 17.A धुउ; PUT K घa and gloss तृप्तिम् ।
(1) 1. P "उजुयरम्मु । 2. AP लोहमारु 1 3. A थाहमि। 4. A °थाह। 5. A कुंभणिहि ।