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महाकइ-पृष्फयंत-विरार महापुराण घत्ता-गउ वेयविगिरि खगसेविज वे वि जिणेप्पिणु ।।
हयमायंगवरखेयरकण्णाउ लएप्पिणु 113।।
पुणु वसिकिउ सुरदिसि मेच्छखंडु महिमंडलि हिंडिवि रायदंड। गय जइयहं दोचालीस वरिस - तइयहं हरि हलहर दिव्यपुरिस । साहिवि तिखंडमेइणि दुगिज्म जयजयसण पइट्ठ उज्म । हरिवीति णिवेसिवि वरजलेहि ह्यतूरहिं गाइयमंगलेहिं। मंडलियहिं णं महहिं गिरिद अहिसित्त रामलखणणरिंद। जहि दिवई सत्थई संचरंति तहि अवसें रणि अरिवर मरंति। जहिं देव वि घरि पेसणु करंति तहिं अवर्से पर भयथरहरंति । को वण्णइ हरिबलएवरिद्धि वाएसिइ दिण्णी कासु सिद्धि। जं विजयतिबिट्ठह तणउ पुष्णु तं एयह दोहि मि समवइण्णु । हो पूरइ वण्णवि काइं एत्यु किं तुच्छबुद्धि जंपमि णिरत्थु । 10 पत्ता-सेविय गोमिणिइ रइलोहइ कोलणसोलइ ।।
रज्जु करत थिय ते बे वि पुरंदरलीलइ ।।4।। पत्ता-वह विजयार्धगिरि गया और उसकी दोनों श्रेणियों को जीतकर, अश्व, गज और उत्तम विद्याधर कन्याओं को लेकर ॥3॥
फिर उसने पूर्व दिशा के म्लेच्छ' खण्ड को वश में किया। भूमिमण्डल में राजदण्ड घुमाकर अब बयालीस वर्ष बीत गए तब राम और लक्ष्मण दोनों महापरुषों ने दहि तीन खण्ड धरती को जीतकर जय-जय शब्द के साथ अयोध्या नगरी में प्रवेश किया। सिंहासन पर बैठाकर, राम लक्ष्मण राजाओं का उत्तमजलों, आहत तुर्यों, गाये गए मंगलों के द्वारा इस प्रकार अभिषेक किया गया, मानो मण्डलित मेघों के द्वारा गिरीन्द्र का अभिषेक किया गया हो। जहां दिव्य शस्त्रों का संचार होता है वहाँ युद्ध में अवश्य शत्रुप्रवर मरते हैं। जहाँ देव गण घर में सेवा करते हैं, वहाँ अवश्य मनुष्य भय से थरथर काँपते हैं। बलभद्र और नारायण की ऋद्धि का वर्णन कौन कर सकता है ? वागेश्वरी द्वारा दी गई सिद्धि किसके पास है ? जो पुण्य विजय और त्रिपुष्ठ का था, वही पुण्य इन दोनों को प्राप्त हुआ था। वर्णन करने से वह क्या यहां पूरा होता है ? मैं तुमछबुद्धि व्यर्थ क्यों कथन करता हूँ !
पत्ता-रति को लोभी क्रीड़ाशील लक्ष्मी के द्वारा सेवित वे दोनों इन्द्र की लीला से राज्य करते हुए रहने लगे।
(4) 1 P रामचंड । 2.Areadsaas band basa in this line| 3.A भउ पर; P भर घर' 4, P एवहं।