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महाक- पुष्कमंत विजय महापुराण
तहि रिसिं तवसंतायें रीणउ मग्गसिरइ सिसिरइ संपत्तइ तइयइ सासिणिदियहि वियालइ उप्पणेण णविणों सुहुमहं अवतरिय दूरई पोग्गलाई पूरियगलियं गई मल्लयमुरयवजणहु तिहुबणु कालु विलक्खि जायपवत्तणु धमाधम् a farsठाणइं ता दसदिसिव हे हि आवंतहि
लमही रुहतलि आसीणउ | fee मियंक रावलिदित्तइ । पिल्लूरियमहंतत मजालद्द । निदुइ देवें केवलणाणें । पञ्चषखाई सुभेगही रहूं । गंधर्वण्णपरिणामवसं गई ।
गण लक्ख गयणं गणु । अप्परं सयणु अयणु चेयणगुणु । बुज्झिते सुद्धप्रमाणडं ।
जय जय जय' मुणिणाह भतहि ।
घता
- पूएप्पिणु वियसियसुरहियहि कुसुमहिं कुसुमसरतिहरु ॥ देवणिकाय गमिउ णमि परमपरिग्गहु परमपरु ।।12।।
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दुबई – रेहद्द तुज्नु गाह भुवणसयसीहा सण विलासओ ॥ जस्सा होवयम्मि देबिंदु' वि बहसइ गवियसीसम || || दवउ' धणघरतिट्ठावाहि जगु जीवद्द तुह छत्तं छाहिंह। तुह वाय मृगु मंदु वि बुज्झइ ।
पई दिइ पावि वि सुझह
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शाखाओं पर हंस और मयूर क्रीड़ा कर रहे थे। वहाँ तप के संताप से क्षीण वह ऋषि मौलश्री वृक्ष के नीचे स्थित हो गए। वहाँ मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में संध्या समय महान तमोजाल को नष्ट करने पर, जिसे देवता नमस्कार करते हैं ऐसे उत्पन्न हुए केवलज्ञान के द्वारा देव ने सूक्ष्मतर और अंतरित दूरियां, तथा भेदों से गंभीर प्रत्यक्षों को देख लिया । गंधव और परिणमन के वशीभूत, पूरित और गलितांग पुद्गलों को देख लिया। सकोरा और सुरज बाद्य के समान त्रिभुवन को अवगाहनस्वरूप आकाश को प्रवर्तनमूलक काल को, आत्मा, सशरीर जड़ और चेतन गुण को, धर्म और अधर्म-दोनों गति और ठहराव के कारण को, उन शान्त ने शुद्ध प्रमाण से जान लिया। तब दसों दिशा पथों से आते हुए, 'हे मुनिनाथ आपकी जय हो, जय हो' कहते हुए
पत्ता - चारों निकायों के देवों द्वारा विकसित एवं सुरभित कुसुमों से कामदेव की पीड़ा का हरण करनेवाले प्रशांत परिग्रह, परमपर नमि को पूजा कर, उन्हें नमन किया गया ।
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हे स्वामी, तुम्हारे भुवनत्रय का सिंहासन-बिलास शोभित है कि जिसके नीचे देवेन्द्र भी अपना सिर झुकाकर बैठता है। धन और तृष्णा की व्याधि से दग्ध विश्व तुम्हारे छत्रों की छाया में जीता है। आपको देख लेने पर पापिष्ठ भी शुद्ध हो जाता है। तुम्हारी वाणी से मंद पशु भी
(12) 1 P अंबरसरियई । 2 A सभेय° 3 AP वण्णगंधपर। 4. A दसदिसिषण P दसदिसिवहि हि भवंतहि । 5. Pomits जय ।
( 13 ) 1 A देविंद्र पइसई। 2. A दड्ढयंधणघर" । 3. Ap मिगु ।