Book Title: Mahapurana Part 4
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 268
________________ 238] महाकवि पुष्पवात विरचित महापुराण 80 135 तुह धम्महु ण लील संपावइ विजुज्जोए' अंगउ दावह। णिग्गुणधम्में केत्ति गज्जइ घणु तुह दुंदुहिरवहु ण लज्जइ। जिण तुह भामंडल वित्थारें लोउ ण धिप्पइ मोहंधारें। तुह चामरहिं चलंतहिं पेल्लिज कम्मरेणु उड्डाविवि धल्लिउ । रंजिय कुसुमविट्ठिरुइरंगें महुअर मत्ता तुजा जि संगें। तुज्झु असोउ सोयणिण्णासणु णंदउ णाह तुहारउ सासणु । 10 धत्ता-जय जय परमप्पय परमगुरु जम्मि जम्मि तुहं महु सरणु ।। रिसिचरणमूलि सल्लेहणिण महुं देज्जसु समाहिमरणु ।।13।। दुवई—इय संथुउ जिणिदु देविदाह सेवियघोरकाणणो॥ वगयकामकोहमयमोहमहातवलच्छिमाणणां ॥ देउ एक्कवीसमऊ जिणेसरु उपगउ णं गयणंगणि सरु । सच्चु सधम्म अहम्मु वियार भवसमुद्दि बुड्डतई तारइ। उवसंतई पयपंकयणवियई पियश संमोहिमधियाई : तहु उप्पण्णा पुण्णमणोरह सुष्पहाइ सत्तारह गणहर। पुष्यधरहं पण्णास समेयई चउसयाई ससिदिणयरतेयई। उडुसयाइं बारहसहसालई सिक्खुयरिसिहि समुज्जलसीलई। पुणु छसयाई बारहसहसालई णाणत्तयवंतहुं सुणिउत्तई । समझ जाता है । मेघ तुम्हारे धर्म (धनुष) की लीला नहीं पा पाता इसीलिए विद्युत् के प्रकाश से अपना शरीर दिखाता है । अपने निर्गुण (डोरी रहित) धनुष से वह कितना. गरजता है ! घन तुम्हारे दुंदुभि के शब्द से लज्जित नहीं होता ? हे जिन, तुम्हारे भामण्डल के विस्तार से लोग मोहान्धकार की गिरफ्त में नहीं पड़ते। तुम्हारे चलते हुए चमरों से प्रेरित कर्मधूलि उड़ाकर फेंक दी जाती है । कुसुमवृष्टि की कांति में रंगे हुए भ्रमर तुम्हारे साथ ही मत्त रहते हैं । तुम्हारा अशोक शोक का नाश करनेवाला है। हे नाथ, तुम्हारा शासन बढ़ता रहे। घत्ता हे परमात्म आपकी जय हो; हे परमगुरु, जन्म-जन्म में तुम मेरे लिए शरण हो; मुझे मुनिवर के पादमूल में सल्लेखना और समाधिमरण देना। (11) जिन्होंने घोर कानन का सेवन किया है, जो काम, क्रोध, मद, मोह से रहित और तपरूपी महालक्ष्मी को मानने वाले हैं, ऐसे जिनेन्द्र की देवेन्द्रों ने स्तुति की । इक्कीसवें जिनेश्वर देव मानो आकाश में सूर्य के रूप में उगे । वह धर्म-अधर्म का सच्चा विचार करते हैं, संसार रूपी समुद्र में गिरते हुओं को तारते हैं, प्रिय वचनों से भव्यों को सम्बोधित करते हैं। उनके पुण्य मनोरथ सुप्रभ आदि सत्ररह गणधर हुए । चन्द्र और सूर्य के समान तेजस्वी पूर्वधारी चार सौ पचास थे। बारह हजार छह सौ शील से समुज्जवल शिक्षक मुनि थे। फिर बारह हजार छह सौ तीन ज्ञान के 4. A विज्जाजोएं। 5. AP 'रइरंग; K records a p: रप इति पाठे रजः । 6. P परमपरु । (14) 1. P सच्चु सुतच्च सुधम्मु । 2. P संबोहए। 3. AP गणहर सत्तारह ।

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