Book Title: Mahapurana Part 4
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 272
________________ 242] महाकवि पुष्पवरत विरचित महापुराण [80. 17.3 णिच्छियतिण्णिसहसवरिसाउसु सवपियारउ णं णवपाउसु। वरइक्खाउवंसणहससहरु बंदिणजणविहंगसुरतरुबरु । कणययवष्णु करसठ्ठि समुण्णउ' सयलकलाकलावसंपुषणउ। रज्जि णिविट्ठहु चक्कुप्पण्णउं रविबिबु व सेवद्द अवइण्ण। परिसाहिय छक्खंड वसुंधर सेव कराविय सुर वि सुदुर । एक्कहिं दिणि सउयलि वसंतें । विज्जुवडणु मयणाउ णियंतें। कारण तें वइरग्गहु पाविउ सन्नु अणिच्चु मणेण परिभाविउ । रज्जु पढमपुत्तहि ण वि मण्णिउं जिह णिवेण तिह तें अवगणि। 10 णिरवसेसु लहुसुयहु समप्पिवि सत्तुमित्तु सममइ संकप्पिवि। केवलिवरयत्तह णिवणेसरु जाउ समीवि साहु परमेसरु । समयइ कयसंणासुत्तमु हुयउ जयंतदेउ लयसत्तम। हुयउ जयतदउ घत्ता--संणासमरणि भरहेसरह परसुरवरहिं अहिं ।। पुज्जाविहाणु णिव्वत्तियउं पुष्फयंतसमतेहि" ।।। १॥ 15 इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभब्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकल्वे "णमितित्थयर जयसेणचक्कहर-।। कहंतरं णाम असीतिमो परिच्छेओ समत्तो ।।801 (17) सेन नाम रखा गया । वह अपनी गति से दिगज को जाता पालापा। उसकी निश्चित तीन हजार वर्ष की आयु थी। नवपावस के समान वह सबका प्यारा था। वह श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंश के आकाश का चन्द्रमा था। बन्दीजन रूपी विहंगों के लिए कल्पवृक्ष था। उसका स्वर्ण वर्ण शरीर साठ हाथ ऊँचा था । वह समस्त कला कलाप से पूर्ण था। राज्य में बैठे हुए उसे चक्ररत्न उत्पन्न हुआ, मानो सूर्य बिम्ब ही अवतीर्ण होकर उसकी सेवा कर रहा था। उसने छह खंड धरती सिद्ध की। दुर्धर देवों से उसने सेवा करवाई। एक दिन सौधतल पर बैठे हुए उसने आकाश से बिजली को गिरते हुए देखा । इस कारण से उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने मन में सब कुछ अनित्य समझा। प्रथम पुत्र ने भी राज्य को नहीं माना, जिस प्रकार पिता ने, उस प्रकार पुत्र ने, उसकी अवहेलना की। अपने छोटे पुत्र को समस्त राज्य देकर, शत्रुभित्र में समबुद्धि कर, वह नपसूर्य केवली घरदत्त के पास जाकर, साधु हो गया। सम्मेदशिखर पर उत्तम संन्यास ग्रहण कर वह वैजयन्त अहह्मेन्द्र हुआ। पत्ता-उस भरतेश्वर के संन्यास-मरण पर सूर्य-चन्द्रमा के समान तेज वाले अनेक नरपतियों और देव-देवेन्द्रों के द्वारा उसका पूजा-विधान किया गया॥17॥ प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का नमि तीर्थकर, चक्रवर्ती जयसेन-फयान्तर नाम अस्सीबा परिच्छेव समाप्त हवा । (17)1. A परिससहसाउसु । 2. A समुग्गज । 3.AP उवण्ण। 4.AP बिजुपरणु 1 5. AP बरहत्तहु । 6. AP जयंति देउ । 7. A सयलुत्तमु । 8. AP पुप्फरस । 9. AP णमिणाहणियाणगमणं । 10. Aomits जयसेणचक्कहरकतरं। 11.Pचक्कट्टि।

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