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असीतिमो संधि
वियसावियभुवणसरोरुहहो केवलणाणकिरणधरहो । पणवेप्पिणु णमिजिविणपरहो जणमणतिमिरभारहरहो॥ध्र वक।।
दुवई जेण जिया रउद्द चल पंच वि वम्महमुक्कसायया ।।
भवसंसरणकरमावस्येपर विरामः सायया ॥छ।। मुक्क मही णिवसंगया
समसिद्ध तयसंगया। उज्झियजीवसवासणा
विहिया जेण सवासणा। जस्स सुधी पिसुणेहले
सरिसा सहले गेहले। छिण्णं जेणुद्दामयं
आसारइयं दामयं । णिच्चं वणयरकंदरे
जो णिवसह गिरिकंदरे। ण महइ धम्मे मंदयं
इच्छइ सासयम दयं । अस्सीवीं संधि
जिन्होंने भुवनरूपी कमल को विकसित किया है, जो केवलज्ञानरूपी किरण को धारण करनेवाले हैं, जो जन-मन के अन्धकार को दूर करनेवाले हैं ऐसे नमिरूपी दिनकर को प्रणाम कर,
जिन्होंने भयंकर और चंचल, कामदेव के पांचों तोरों को जीत लिया है, और भवसंसरण करानेवाली विषवेग के समान कषायों से विषम नृपसंगत भूमि को छोड़ दिया है, जो शम सिद्धान्त के वशीभूत हैं, जिन्होंने अपने स्वभाव को मृतकभक्षण को छोड़ने के संस्कारवाला बना लिया है, जिसकी शोभना बुद्धि निष्फल दुर्जन और सफल स्नेही जन में समान है, जिसने उधाम आमा द्वारा रचित महान् वचन को तोड़ दिया है, जिसमें कंदमूल खानेवाले भील रहते हैं, ऐसी गिरि-गुफा में जो नित्य निवास करते हैं, जो धर्म में शिथिलता को महत्त्व नहीं देते, जो शाश्वत AU Mass. have, at the beginning of this samdhi, the following staza :
लोके दुर्जनसंकुले इतकुले तृष्णावशे मीरसे सालंकारवचौविचारपतुरं लालित्यलीलाधरे । भरे देवि सरस्वति प्रियतमे काले कसो सांप्रतं
कंयास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पवतं विना ।।। (1)1.Pबहाद।