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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[77.13.13 केण वि कासु वि पविमुट्ठियां सीसक्के सहुँ सिरु चुण्णु कयउं । गउ वियलियासु कंकालसिद्ध कासु वि लोहियरसु रसिवि गिद्ध । उड्डेप्पिणु वच्चइ गयणमगु णं पोरिस वण्णइ गपि सग। तहि अवसरि बहुतत्तिल्लएहि जायवि कयजणमणसल्लएहिं । पत्ता-णिउ णिग्गउ भरहवाहिवइ चारहि रामह कहिउ वियारिवि ।।
थिउ ता रणदिक्खहि दास रहि पुप्फयंतु जिणबरु जयकारिवि ॥13॥
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभन्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे राहवरावणबलसंणहणं
णाम सत्तहत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो ।।77॥ किसी का वच्चमुष्टि से आहत शिरस्त्राण से सहित सिर चूर-चूर कर दिया गया। बेचारा कापालिक निराश होकर चला गया। किसी के रम्पत रूपी रसास्वाद देकर पीप उड़कर आकाशमार्ग में जा रहा था, मानो स्वर्ग में जाकर उसके पौरुष का वर्णन करने जा रहा हो। उस अवसर पर अत्यन्त चिंतायुक्त और जिन्होंने जन-मानस में शल्य पैदा कर दी है, ऐसे चरों ने जाकर,
पत्ता-राम से विचार कर कहा कि भारत का अर्धचक्रवर्ती राजा (युद्ध के लिए) निकल पड़ा है, तब राम भी पुष्पदंत जिनवर को जयकार कर रणदीक्षा में स्थित हो गए।
इस प्रकार, प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में, महाकवि पुष्पदंत वारा रचित तथा महाभव्य भरत द्वारा अनुमत इस महाकाव्य का राघव-रावण
'बल-सहनन नामक सतहत्तरवा परिच्छेद समाप्त हुआ।
8. A बत्तिस्सएहि । 9. A उभयबसभिडणं; P उभपबलाभिडणं ।