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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
"झणझणियमणिकिंकिणी सोहमाणेहिं अणवरयकरडयलपरिगलियवाणेहि' । सोवण्णसारीणिबद्ध, सचिधेहि करणासियागहियगयणाहुगंधेहिं । दंतग्गभिण्णग्गखग रहतुरंगेह
बेवि थिय रायणि मायामयं गेहिं ।
ता मुक्कदहमुहिण पच्छश्य हमाय विसविसम गुरुविसहरायार णाराय । तप्पंजरे छूट' तेणारिविद्दवणु अलिकसणु हणवसणु बीभवणु सिरिरमणु । पुणु पहणावरणि मणि विज्ज संभरिवि सरणियरु जज्जरिवि हुंकरिवि णीसरिवि । जा बीरु उत्थरिवि चप्परिवि पइसरइ स रहंगु तहिं ताम धरणीसरी सरइ | घत्ता — णवचंदणचच्चि कुसुमहिं मंचिउ रमणाराकिरणोहदलु ॥
गं रावणलच्छिहि कमलदलच्छिहि करयलाउ विडिउ कमलु ||17||
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दुबई— रूसंतेण तेण महुमणमहासुहडे णिलोइयं ॥
तं कुडिलयर चडुलतडिवलयणिहं गयणे पधाइयं ॥ छ ॥ ता दिट्ठ णहि एंतु सहसति विडंतु । धाराकराले हिं करवालसूले हिं' । क्षसमुसलसेल्लेहि वावत्यमरहिं ।
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पर्वत की तरह महान हैं, जो झन झन करती हुई मणि रूपी किंकणियों से शोभित हैं, जिनके गंडस्थल से अनवरत मदजल झुर रहा है, जिनके स्वर्ण-पर्याणों पर ऊंचे ध्वज बँधे हुए हैं, कानों के कारण भ्रमर जिन महागजों से गंध ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं, जिनके दाँतों के अग्र भागों से विद्याधरों के रथ और अश्व भग्न हैं, ऐसे मायागजों से आकाश में स्थित हो गए। तब उस रावण द्वारा मुक्त, विशाल विषधर आकारवाले, विष से विषम तीर आकाश में आच्छादित हो गए । उस तीरपंजर में शीघ्र ही जब शत्रु का विदारक, भ्रमर की तरह श्याम, दुःख का नाश करने वाला भयंकर वीर लक्ष्मण, फिर अपने मन में प्रहरणावरणी विद्या का स्मरण कर, शरसमूह को जर्जर कर, हुंकार कर निकलकर उछलकर चापकर प्रवेश करता है तब वह धरणीश्वर रावण च का ध्यान करता है।
घत्ता - नय चंदन से चचित, फूलों से अंचित, रत्नों की आराओं के किरणसमूह के दल वाला चक्र इस प्रकार गिर पड़ा मानो कमलदल के समान आँखों वाली रावण की लक्ष्मी के करतल से कमल गिर पड़ा हो ।
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क्रुद्ध होते हुए रावण ने उसे महासुभट लक्ष्मण में नियोजित किया । कुटिलतर और चंचल विद्युद्वलय के समान वह चक्र आकाश में दौड़ा ।
तब वह आकाश में आता हुआ और सहसा गिरता हुआ देखा गया । धाराओं से कराल करवालों और शूलों, इसों, मूसलों, सेलों बावल्लों और भालों से तथा शत्रुजनों के लिए कृतांत 5. AP वणुरुणिय। 6. A अणव रयपरिगलियकरडयलदाणेहिं । 7. A दंतरिगणिधिष्णग 18, A दहवण । 9. P छट्टु । 10. 4 धीभवणु ।
(18) 1. A करवालवाले हि । 2. A मुसलसल्ले हि ।