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महाकवि पुष्पवन्त विरचित महापुराण सुंयरइ करिणीकरलालियाई गिरिगेरुयरयउद्ध लियाई। सुंयरइ सिसुमयगलकीलियाई करतालयहिंदोलियाई। घत्ता-एंव कहेप्पिणु मुक्कु गउ गउ सो विझहु कहिं मि सइच्छइ ।
अग्गइ सयणहं परियणहं णरणाहेण पबोल्लिज पच्छह ।।6।।
जहिं णरणाह यि होति गय कालेण हय । तहिं कि किज्जइ सिरिधरण जिणतवचरणु। किज्जाकाणणि पइसरिवि थिरु मणु धरिवि । सुररिसिहि वि सो तहि संथविउ सक्के हविट। विजयह रज्जु समप्पियउ तिणु केपियां, गउ सिवियइ अवराइयइ
सुविराइयई। ओइण्णउ' जिणु णीलाण तरुवेल्लिणि। वसाहइदिसमीदियहि
पिच्चंदवहि'। सवणि सहासें सहूं णिवह
जगबंधवहं । छठुव वासें तवु गहिउं
अमरहि महिउ। भिक्खहि मुणि गज रायगिह विच्छिपणछि। बसहसेणरायस्स धरि
थिउ पुण्णभरि। जं पासुययरु लद्ध जिह सं भोज्जु तिह। यह, सल्लकी लता के पल्लवदल की याद कर रहा है, वहाँ के शीतल नदी-सरोवर के जलों की याद कर रहा है, वह याद कर रहा है पर्वत की गेरुरज से व्याप्त हथिनी के सूड़ों का लाड़, वह याद कर रहा है शिशुगजों की क्रीड़ाएं एवं सूंड और तालवृक्ष के आंदोलन।
पत्ता-इस प्रकार कहकर, उन्होंने गज को मुक्त कर दिया । वह अपनी इच्छा से विध्याचल में कहीं भी चला गया। बाद में राजा ने स्वजनों और परिजनों के सामने कहा ॥6॥
जहाँ राजा भी समय के चक्र में पड़कर हाथी होते हैं वहाँ श्री को धारण करने से क्या ? जिनवर का तपश्चरण करना चाहिए, वन में प्रवेश कर और अपने मन को स्थिर कर । तब वहाँ लोकान्तिक देवों ने भी उनकी संस्तुति की। इन्द्र ने अभिषेक किया। राज्य को तिनका समझा, और विजय' के लिए, सौंप दिया, अत्यंत शोभित अपराजित शिविका में बैठकर, वह गए। जिन, वृक्षों और लताओं से सधन नीलवन में उतरे, और वैशाख कृष्णा दसवीं के दिन (जब कि चन्द्रमा पथ से जा चुका था) श्रावण नक्षत्र में एक हजार जगबंधु राजाओं के साथ, छठा उपवास करके उन्होंने तप ग्रहण कर लिया। देवों ने उनकी पूजा की । स्पृहा से रहित वह भिक्षा के लिए राजगृह गए। वृषभराजा के पुण्य से परिपूर्ण घर में जाकर स्थित हो गए। जैसा प्राशुकतर भोजन
(7) AP करीइ। 2. A फाणण। 3. AP मणु थिरु ! 4. AP कम्पियन । 5. A रुइराइ. Komits सुविराइयइ। 6.AP उबइण्णउ। 7.A णिच्द यहि। 8. Aसवणसहासे। 9. Aविच्छिण्ण।