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71.21.4]
महाका-पुप्फयंत-विरइया महापुराणु जइणियमेण वसंति ण सायर जई पडंति सिसिरयर' दिवायर । जइ जिणु राएं दोसें छिज्जद तो पईसीय खगिद रमिज्जइ। तं णिसुणिवि दहवयणे बुन्चद अवसु वि वसि किज्जइ जं रुच्चइ। किं विसभइयइ फणिमणि मुच्चइ अलसह सिरि दूरेण पबच्चइ। . सुहिसयणत्तणु पुरिसपहुत्तणु गिरिमसिणत्तणु सइहि सइत्तणु । दूरयरत्थु सुणंतहं चंग पासि असेसु वि दरिसियभंगउं। हरमि सीय कि पउरपलावें ता सा पुणु' वि कहइ सम्भावें।
दहमुह एउ अजुत्तु अकित्तणु इय बोलति संति मंतित्तणु। पत्ता-चंदणहि णिवारिवि असिबरु धारिवि सुरसमरओहि असंकियउ॥
भरहदणरेसरु सुरकरिकरकर रावणु" पुप्फयंति थियउ ।।21।।
इय महापुराणे तिमिहापुरिसगुणालंकारे महाभध्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकब्बे णारयआगमणं रावणमणखोहणं
णाम एकहत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो।। 71 ॥ स्थान से चलित हो जाए, यदि समुद्र नियमित रूप से न रहे, यदि चन्द्रमा और सूर्य गिर पड़ें, यदि जिन भगवान राग-द्वेष से छिन्न हो जाएं, तो हे देव, सीता देवी आपके साथ रम सकती है। यह सुनकर रावण कहता है-जो अच्छा लगता है, ऐसे अवश को भी वश में किया जाता है। क्या विष के भय से नागमणि को छोड़ दिया जाता है? आलसी व्यक्ति से लक्ष्मी दूर रहती है । सुधियों का स्वजनत्व, पुरुषों की प्रभुता, पहाड़ की रम्यता और सती का सतीत्व दूरस्थ होने के कारण सुनने में अच्छा लगता है, निकट होने पर उनकी अशेष खामियाँ प्रकट हो जाती हैं । मैं सीता का अपहरण करूँगा । अत्यधिक प्रलाप से क्या ? तब वह पुनः सद्भाव से उससे कहती है--'"हे दशमुख, यह अयुक्त और अशोभनीय है ।" ऐमी मंत्रणा देती हुई
पत्ता-चन्द्रनखा का प्रतिकार कर, असिवर अपने हाथ में लेकर देवों के युद्धों में अशंकित, भारत का अर्ध चक्रवर्ती और ऐरावत की सूड़ की तरह बाहुवाला रावण अपने पुष्पक में बैठ गया।
वेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदंत द्वारा विरचत, महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का रावण-मन-क्षोभन नाम का
इकहत्तरवा परिच्छेद समाप्त हुआ।
4. A ससिरयर। 5. A पय। 6. AP गिरिहि महत्तणु। 7. AP कहइ पुणे वि। 8.P अखप्तणु। 9.A समरेहिं असं"; P समरउहे असं । 10. P रामणु। |1. AP रामणखोहणं ।