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महाकवि पुष्पवन्त विरचित महापुराण
चक्केसरु वरलक्खण पसत्थु गिरिसिहासिक गोलमेहु चामरवीति णिहितचरणु विज्जिज्जइ चलचमरीरुहेहि गाइरहि दोसइ णवकप्पदुमफलेहिं मउग्रयणमहियललिहेहि चितड़ मारुइ उब्विण्णचित्त '
Tags दहमुहु सीहा सणत्थू | पण्णा रचावपमाणदेहु । बलवंतकालु बलहीणसरणु । वणिज्जइ वरबंदिण मुहेहि । सलहिज्जइ सुरण र सेब एहि । माणससरवररतुप्पलेहि । पण विज्जइ सुरइस णिहि । हा एण विहित परकलत्त ।
पत्ता - एसज्ज एवं एवड्डु कुलु तो वि कयाउं' सकलंकणु ॥ सुवर्णाभिगारहु खप्परु दिण्णजं ढंकणु ||| 5 ||
[73. 15. 3
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दुवई - पुणु विसवणपूरकत्थूरियपरिमलगण कुसलओ ॥ दहमुह देहि सीयमाणासहि णं गुमुगुमइ मसलओ' छ। सो सइंजि कामु णं कामबाणु तरुणीबिबाहरि ढुक्कमाणु । कोमलकरयलवारिज्जमागु चमराणिलेण पेरिज्जमाणु जुयल णाहिमंडल घुलंतु पिछह कवोलपत्त' दलंतु ।
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उसने उत्तम लक्षणों से युक्त चक्रेश्वर दशमुख को सिंहासन पर बैठे हुए देखा | मानो नीलमेघ पर्वतशिखर पर आश्रित हो । उसका शरीर पन्द्रह धनुष प्रमाण था । स्वर्णपीठ पर अपने पैर रखे हुए था। वह बलवानों के लिए काल था और बलहीनों के लिए आश्रयदाता था । चमरी गाय के बालों से जिसे हवा की जाती है, श्रेष्ठ चारण मुखों के द्वारा जिसका वर्णन किया जाता है, सरगम भावों से जो गाया जाता है, सुर-नर सेवकों के द्वारा जिसकी प्रशंसा की जाती है, नव कल्पवृक्षों के फलों और मानसरोवर के रक्त कमलों के साथ जिसके दर्शन किए जाते हैं, जिनके मुकुटों के अग्र भाग से भूमि तल लिखित है ऐसे इन्द्र-समूह द्वारा जिसे प्रणाम किया जाता है, हनुमान् अपने मन में उद्विग्न होकर सोचता है-खेद है कि फिर भी इसने परस्त्री का अपहरण किया ।
पत्ता - यह ऐश्वर्य, इतना बड़ा कुल, फिर इसने उसे क्यों कलंकित कर दिया ? हा हंत, विधाता ने स्वर्णभिंगार को ढाँकने के लिए खप्पर दिया (या खप्पर का ढक्कन दिया ) |
( 15 ) 1. A ओविष्ण" । 2.AP विहित्तउं। 3. P कयं सकलंकणु । (16) 1 P सलुओ 2 A बिवाहर"। 3 A कवोलि ।
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फिर जो राजा के कानों में पूरित कस्तूरी के परिमल को ग्रहण करने में कुशल था, ऐसा वह भ्रमर मानो गुन-गुना रहा था कि हे रावण, तुम सीता दे दो, अपना नाश मत करो।
वह भ्रमर (हनुमान् ) स्वयं कामदेव और कामवाण था, युवतियों के विम्बाधरों पर पहुँचता हुआ, कोमल हथेलियों के द्वारा हटाया जाता हुआ, चमरों की हवा से प्रेरित होता हुआ, स्तन युगल और नाभिमंडल में प्रवेश करता हुआ, अपने पंखों से कपोलों की पत्ररचना को दलित