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16.9.14]
महाका-पुष्कर्षत-विरइयउ महापुराण
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मलयमंजरी-छइयकेउसोहो गयणचारुरोहो अणियलोयवसणो॥
चडइ गयणि धूमो रावणस्स भीमो दुज्जसो व्व कसणी ।।छ।। धूमंतरि जालोलिउ जलियर णं णवमेहमज्झि विज्जुलियउ। पुणु वि ताउ सोहंति पईहउ गं चामीयरतरुवरसाहउ। संदाणियसीमंतिणिदेह
सिहिणा पसरियाउ णं बाहउ। घरसिरकलसु वलंत छित्तउ । सरिउणिवासु व पउसिवि घित्तउ । सह्यरु छंदगामि णउ मुणियउ घउ परिघोलमाणु कि हुणियउ । उग्गु ण सज्जणपक्खु विहावइ उड्ढगामि किह' पर संतावइ । गमणे जासु होइ काली गइ तहु किर कि लङभइ सुद्धी मइ । वरमंदिरजडियई माणिक्कई डहइ अछेयपहापइरिक्कई ।। तेयवंतू' परते ण इच्छद
सई जि पहत्तणु विहबहु वंछ। डझंतहि चंदणकप्पूरहि
पउरसुरहिंपरिमल वित्थारहिं । रयभमरई उक्कोइयमयणई वासियाई सयलई दिसवयणई। जिणवरवेस णिसेहकयत्थई दड्ढ़ई मउदेवंगई वत्थई।
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(9) रावण के भयंकर अपयश की तरह काला धुओं आकाश में चढ़ता है। छादितकेतुशोभ (ध्वज की शोभा को आच्छादित करने वाला, ग्रह विशेष को तिरस्कृत करने वाला), धएं के भीतर ज्वालावली इस प्रकार जल उठी मानो नवमेघ के भीतर बिजली चमक उठी हो। फिर वह लम्बी ज्वाला इस प्रकार शोभित होती थी मानो स्वर्ण-वृक्ष की शाखा हो । स्त्रियों के शरीर को पकड़ने वाली आग ऐसी मालूम होती थी, मानो उसने अपनी बाँह फैला दी हो। जलती हुई उससे गंडकलश गिर पडा मानो उसने अपने शत्र. (जल) के निवास रूप (घड़े) को जला कर फेंक दिया हो। उसने स्वच्छंदगामी अपने मित्र (वायु) को भी कुछ नहीं समझा | क्या (वायु से) आंदोलित ध्वज को इसलिए होम दिया? उग्र सज्जन पक्ष भी अच्छा नहीं लगता। उर्ध्वगामी होते हुए भी वह, दूसरों को क्यों सताती है ? जिसके चलने में गति काली हो जाती है, उससे शुभ गति किस प्रकार पाई जा सकती है ? वह निरन्तर प्रभा से परिपूर्ण श्रेष्ठ प्रासादों में विजडित माणिक्यों को भस्म करने लगी। जो तेजवाला होता है वह दूसरे के तेज को नहीं चाहता। वैभव की प्रभुता वह स्वयं चाहता है। प्रचुर सुरभि परिमल विस्तारवाले, जलते हुए चंदनकपूर से युक्त, भ्रमरों से व्याप्त काम-कुतूहल उत्पन्न करनेवाले समस्त दिशा-मुख सुवासित हो उठे। जिनवर के देष (दिगम्बरत्व) का निषेध करने वाले मृदु कोमल वस्त्र जल गए।
(9) 1.Pचारुणहो। 2. चंरतP बलवते, bnt K बलतें ज्वलता । 3. A कि परु । 4 AP कहिं । 5.A परवल पेक्षिवि णावह थक्कई। 6. P परिथक्कई। 7.P सेयमंत। 8.A रइभवणई। 9.A जिणवरभवणगिसेह' P जिणवरवेमाणिवेस। 10. Pसरियई।