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महाकवि पुष्पयत विरचित महापुराग
[76.9. 19 पत्ता-घरदुवारु जलइ वरपोमरायविप्फुरियां ॥ जालापल्लवेहि णं दीसइ तोरणु भरिव ||2||
10 मलयमंजरी-दहमुहस्स कम्मं मुक्कणायधम्म जाणिउं व कुस्रो॥
नक्कालाणजालं मगह णं विसालं सि हि सिहासमिजो॥छ।। होमदम्बरासिउ सपत्तर
तिलजवघयकप्पासहि तित्तउ'। हुरुहुरंतु णं संति पघोसई
दिज्जउ रामहु सीय महासइ। होउ' संधि जीवउ महिमाणणु भुजउ लच्छि अविग्ध दसाणणु। एत्तहि अग्गिजाल पवियंभइ एत्तहि वाणरविंदु णिसुंभइ। माय ण पुत्तहंडु संमगइ
जणु हल्लोहलिहुन कहिं णिग्गइ । भवणारोहणु करिवि अभग्गउ णं वइसागर जोयहु लग्गउ। केत्तिय लंकाउरि मई दड्ढी णं विरेण कामिणि दुवियड्ढी। बाहिरपुरवरु एम डहेप्पिणु कित्तिमणिसियरणियरु बहेप्पिणु। 10 चलिउ पडीवज पावणि तेत्तहि णिवसइ ससिबिरु' राह जेत्तहि।
पत्ता-उत्तम पराग मणि से विस्फुरित गृहद्वार जल गया। ज्वाला रूपी पल्लवों से वह ऐसा प्रतीत होता था मानो तोरण बँधा हुआ हो।
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क्रुद्ध अग्नि ने रावण के धर्म और न्याय से मुक्त कर्म को जान लिया। शिखामों से समृद्ध वह मानो विशाल उत्कट बाणज्वाला छोड़ रही थी।
तिल जौ घृत और कपास से परिपूर्ण होम द्रव्य-राशि प्राप्त हो गई जो मानो हुहुर-हुहुर कर शांति घोषित करती है कि महासती सीता राम को दी जाए और संधि हो जाए। मही को मानने वाला वह दशानन जीवित रहे और अविघ्न भाव से धरती का उपभोग करे। यहाँ अग्निजाल बढ़ रहा था। यहाँ वानर समूह नाच कर रहा था। मां अपने पत्र रूपी वर्तन का आलिंगन नहीं करती। लोग हडबडा कर कहीं भी चले जा रहे थे। भवनों का आरोखण कर अभग्न आग मानो यह देखने लगी कि मैंने कितनी लंका नगरी जलाई है। मानो विट ने व्यभिचारिणी कामिनी को देखा हो। बाहर पुरवर को इस प्रकार जलाकर तथा कृत्रिम (मायावी) निशाचर समूह को नष्ट कर हनुमान् वापस चला जहाँ पर शिविर सहित राम ठहरे हुए थे। -. ..
(10) I.A सित्तउ । 2. दिजहो। 3. A होइ। 4. A अविषु। 5. AP सामगह । 6. A चलित 17.A ससिवस; P ससिवह ।