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17.4.12]]
महाका-पृष्फर्षत-विरइयठ महापुराण इंदइ णिरस्थ कयबूढगव
आयासयलि गय पमय सम्व । घत्ताविहरि वि धीरु अविसण्णमणु ण चलइ कि पि सुहडहंकारहु ।।
लंकेसरु लंकहि गंपि थिउ खंधु समोड्डिवि. गुरुरणभारहु ॥3॥
हेला कयरिउविग्यविम्भमा कमियगगणभाया' ।।
आया राममंदिरं विविहवयरराया । छ। ता इच्छियणियणाहसिवेणं हणुमंतें सुग्गीवणिवेणं । गिरिसंमेयसिहरसिद्धाओ अणिमाइहिं रिद्धिहि रिद्धाओ। विज्जाओ परसाहणियाओ केसरिखगवइवाहिणियाओ। दिण्णाओ दुल्लंघबलाणं बीराण' गोविंदबलाणं। पण्णत्तीए रइयं जाणं
रयणमयं मणहारि विमाणं। कुडकोडिसंघट्टियचंद
दिवं' कइवयजोयणरुंदं । भित्तिणिरूवियचित्ति' सुरूव' बद्धसिणिद्धचिंधचंदोवं। रणझणंतमणिकिकिणिजाल हेममयं तोरणसोहालं। णाणाबिहदुवाररमणीयं । पारंभियसुरसुंदरिगीयं । आयण्णियपरखयालो
अवदायि । करने वाला इन्द्रजीत निरस्त्र हो उठा। सारे वानर आकाश-तल में चले गए।
घत्ता संकट में भी धीर, अविषण्णमन वह अपने सुभट होने के अहंकार से जरा भी विचलित नहीं होता। लंकेश्वर लंका में जाकर स्थित हो गया, अपने कंधों पर भारी रण-भार को उठाने के लिए।
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जिन्होंने शत्र ओं में विघ्न का विभ्रम उत्पन्न किया है और आकाश भाग का उल्संघन किया है ऐसे विविध विद्याधर राजा राम के घर आए।
अपने स्वामी का कल्याण चाहने वाले हनुमान और सुग्रीव राजा ने, समेदशिखर पर्वत पर सिद्ध की गई अणिमादि ऋद्धियों से संपन्न एवं दूसरों को सिद्ध करनेवाली सिंहवाहिनी गरुड़ वाहिनी आदि विद्याएँ अलंघनीय बलवाले वीर लक्ष्मण और राम को दे दी। प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा यान और रत्नमय सुन्दर विमान रचा गया जिसकी शिखरपंक्ति चन्द्रमा से संघर्षत थी। वह दिव्य और कितने ही योजन विशाल था। जो दिवालों पर बनाए गए चित्रों से सुन्दर था, जिसमें सिनग्ध ध्वज चंदोबा बंधा हआ था, मणियों की किकिणियों का सुन्दर जाल जिसमें रुनझुन-रुनझुन कर रहा था, जो स्वर्णमय तोरणों से सुन्दर था, नाना प्रकार के द्वारों से जो शोभनशील था, जिसमें सुन्दर देवगीत प्रारंभ किए गए थे, ऐसे उस विमान में मनुष्यों और विद्याधरों के आशीर्वादों को सुननेवाले तथा अक्षत दही दूध से अंचित सिर वाले राम, 8. A पवय। 9, ण विसण्णमणु। 10. AP समोडिवि ।
(4) I. AP गयण 2. AP सिहरि सिद्धामओ। 3. AP धीराणं । 4. A दियवा का। 5. A भित्तणिरूचिय। 6. AP चित्तसरुवं । 7.AP रुणरणत।