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73.29. 11]
महाका-पुप्फयंत-विरइयड महापुराण किं पुणु धम्मिल्लय कुडिलभाव हरिणीलणोल ह्यभमरगाव । धत्ता-सण्हई चोक्खई ससहरसियइं राहवजससंकासई ।।
दीहरई सुविउलई सुहयरई देविहि दिण्णई वासइं28।।
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दुवई-थिय परिहिवि मयच्छि ण पसाहणु गेण्हइ पियविओइया ।।
___ताव रसोइ सक्न तहि आणिय मंदोरि पराइया ॥छ।। वंदिइ जिणि मणि समसुहपपट्टि आसीण भडारी रयणपट्टि । कलहोयथालकच्चोलपत्त णं धरणिवीठिणक्खत्त पत्त। उपहुण्हउं दिण्णउं पढमपेज णं दाविउ दहमुहि विरहवेत। णं तिक्खु मिठु मलदोसणासु णं भासिउ परमजिणेसरासु। पुणु दिग्णई णाणासालणाई णं दहमुहरइआसालणाई। आणेप्पिणु घल्लिउ दीह कर पं दहमहि" सीयाभाव कुरु । होइयई ससूवई रसबहाई णं दहमुहि सीयारइवहाई। उपणिय घियधार महासुर्यध दहमु हि सीयादिट्टि व सुअंध।
णिण्णेहवंतु णिरु मंदु तक्कु णं दहमुहि सीयामणवियक्कु । सुधिजन से भी द्वेष हो जाता है, फिर कुटिल स्वभाव वाली चोटी के बारे में क्या कहना ? हरि और नील के समान नीली वह, भ्रमर के गर्व को नष्ट करने वाली थी।
__घत्ता-सूक्ष्म, उत्तम चन्द्रमा की तरह श्वेत, राम के यश की तरह लम्बे, विपुल और शुभतर वस्त्र सीता देवी के लिए दिए गएँ।
(29) वह मगनयनी वस्त्र पहिनकर बैठ गई। प्रिय से वियुक्त होने के कारण देह प्रसाधन ग्रहण नहीं करतो। इतने में वहाँ सब प्रकार की रसोई ला दी गई । मंदोदरी भी वहां पहुंची।
अपने सम और शुभ प्रवृत्ति वाले मन में जिनदेव की वंदना कर आदरणीया सीता रत्नपट्ट पर आसीन हो गई । स्वर्ण के थाल और कटोरी पात्र ऐसे लग रहे थे, मानो धरती पर नक्षत्र प्राप्त हुए हैं। पहले गर्म-गर्म पेय दिया गया, मानो रावण के लिए विरह वेग दिखाया गया हो, जो मानो तीखा, मीठा और मल दोष का नाश करने वाला था। मानो जिनेश्वर का कथन था। फिर उन्हें तरह-तरह के शालन दिए गए. जो मानो रावण के लिए रति को आशा दिखाने वाले थे। लाकर खूब भात दिया गया मानों रावण के मुख में दुष्ट सीता का भाव हो । रसदार सुन्दर दाल दी गई, मानो रावण के मुख में सीता की रति का प्रवाह हो । अत्यन्त सुगंधित घी की धारा लाई गई, जो मानो दशमुख में सीता की अत्यन्स- सुगन्धित रसदृष्टि हो । स्नेह (चिकनाई) से रहित, अत्यन्त कोमल तक (मट्ठा) दिया गया मानों दशमुख में सीता का विमुक्त मन हो। 8. A दोहयर।
(29) 1. A परिहवि । 2. AP पराणिया। 3. AP दिवि जिण मणि। 4. AP चित्त । 5. A दहमुह । 6. A पढगब्बु ।