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महाकइ-फयंत विरइयउ महापुराण
तं णिसुणिवि हणुएं उत्तु एव दिउ रावणणं कलिकयंतु दिट्ठी मंदोयरि पिउ चवंति अवरु वि दिउं आरामतु
दिट्ठी जाणइ जीवंत देव । सोहि सकामयणाई देंतु । देवहि हिउल्लउं संथवंति । उपण चक्कु पहाफुरंतु ।
घत्ता - सिरिमंतु सरूवु' वि दहवयणु सीयहि मणु णासंघइ ॥ भरहुपरिगामियतेयणिहि पुप्फयंत' को लंघइ ||30|
इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महा भव्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे सुग्गीवहणुनंतकुमारागमणं सीयादंसणं णाम तिसत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो ||73 ||
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संस्तुति करती हुई मंदोदरी देवी को देखा है। और मैंने देखा है-ओं ही मह प्रचा 'धमकता उत्पन्न हुआ चक्र |
सठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदंत द्वारा विरचित एवं महाभस्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का सुग्रीवहनुमान् कुमारागमन-सीतादर्शन नाम तेहत्तर
परिच्छेद समाप्त हुआ ।
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धत्ता - श्रीसम्पन्न एवं रूपवान् होकर भी रावण सीता के मन का आश्रय नहीं पा सका । भारत के ऊपर जाने वाले तेजनिधि सूर्य चन्द्र का उल्लंघन कौन कर सकता है ?
5. AP महाफ़रंतु । 6. AP सुरू | 7. P पुकतु । 8. A हुणवंत कुमारगमणं णाम वित्तरिमो ।