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73.15.2]
महाकइ पुष्कवंत- विरइपज महापुराण
जहि घुल रेणु कप्पूर रेणु arraणु वेल्लि व णायवेल्लि जरु विरहजरुर जि णउ अस्थि अण्णु घरु सिरिवरु चोर" वि चित्तचोर चउ णववउ रूवु विणिरु सुरुबु रिणु तिलरिणु बंधणु पेम्मबंधु काfमणि खगामिणि अलिवमालु दीa वि जलति माणिक्कदीव Trenगुणु धम्म अहिंसधम्म विष्णमि भूमिवि भोयभूमि
सुरतरुतरु णु वि कामधेणु । र रइरणु भल्लि वि मयणभल्लि । बहुवष्णचित्तु' णउ चाउवण्णु । बज्झति केस रोवंति मोर रिसि खीणदेहु बम्म विरूवु । जलु चंदकतजलद सुगंधु । धूमुवि कालागरुघूम कालु । जीव वि वसंति जहि भव्यजीव । फलु पुण्णफलु जि कम्मुवि सुकम्मु । सामिव दहमुहु खयरायसामि ।
धत्ता - एनक्कल जो गुण संभरइ सो तह अंतु ण पेक्खइ ।। जगसुंदरतु' लंकहि तणउं कवणु कईसरु अक्खद्द ||14|1
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दुबई – कलरवु रुरुतमाणिणिमुहमंडणू जणमणिटुओ ॥ छडणरुवधारिता पावणि रावणभवणि पइटुओ || ||
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और कामधेनुएँ धेनुऐं श्रीं । जहाँ नखत्रण (प्रण और वन ) वन थे। जहाँ रति युद्ध था, दूसरा युद्ध नहीं था । जहाँ कानमल्लिका महिला थी, दूसरी मल्लिका नहीं थी। ज्वर भी विरह ज्वर था, दूसरा ज्वर नहीं था। जहाँ अनेक रंगों का चित्त था, परन्तु चतुवर्ण्य नहीं था; जहाँ घर लक्ष्मी का घर था, और चोर भी चितचोर थे; जहाँ केश बाँधे जाते थे, और मयूर आवाज करते थे । जहाँ उम्र नई उम्र थी और रूप भी स्वरूप था । जहाँ ऋण तिलॠण था, और बंधन प्रेम-बँधा था जहाँ जल चन्द्रकांत मणि का जल था और दलों में सुगन्ध थी । जहाँ कामितियाँ विद्याधर कामिनियाँ थीं । भ्रमरों का कलकल शब्द था, काला गुरु- काला धूम था। माणिक्य केही माणिक्य के दीप जलते थे, जिनगुण ही गुण थे । अहिंसा धर्म ही धर्म था । जहाँ पुण्यफल ही फल था और सुकर्म ही कर्म था। क्या वर्णन करूं, वह भूमि भोगभूमि थी और उसका स्वामी विद्याधर स्वामी रावण था ।
घत्ता- जो उसके एक-एक गुण को याद करता है, वह उसके अन्त को नहीं देख पाता । लंका के विश्व सौन्दर्य का कौन कवीश्वर वर्णन कर सकता है ?
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जिसका शब्द सुन्दर है, जो गुनगुनाती हुई मानिनियों के मुख का मंडन है, जो जनमन के लिए इष्ट है, ऐसे अमर का रूप बनाकर हनुमान् ने रावण के भवन में प्रवेश किया ।
2. AP विरहरु णउ 3 A बहुवष्णु चित्तु गउ वाउवष्णु P बहुवण्णु वित्तु उ वाउवष्णु। 4. AP चोर विचित्तचोरु। 5. A णिरुवु । 6. A गुण जिणगुण । 7. AP जगि सुंदरतु ।