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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
173. 17.8 वणि एत्तहि तेतहि वाल्लवलय सीयहि थिय पसिडिल बाहुबलय । वणि खेल्लइ हरिसिज्जइ वि हंसु सीयहि वट्टइ जीवियविहंसु । वणि दिसमुहि सोहइ लग्गु तिलउ सीयहि पिडालु णिल्लुहियतिलउ। 10 वणि तरुवंदई रूढजणाई सीहि णयणई विगयंजणाई । बणि साहारु जि मारइ पियत्थि सीयहि साहारुण को वि अस्थि । भडसत्ति व बलविहडणविसण्ण जाहि अच्छइ परमेसरि णिसण्ण। तं' सीसवितलु खगभमरु आउ णं वइदेहीजीवियहु आउ। पत्ता-पडिबिंबिउ दहहिं वि पयणहहिं आसण्णउ परिघोलइ ।। 15 सो छप्पउसीयहि कमकमल पसरियपत्तहि लोलइ॥171
18 दुवई-सीयासावभाउ' णं भीसणु णं हुयवहु समिद्धओ॥ - असरिससुहडचक्कचूडामणि पावणि मणि विरुद्धओछ। सीयहि केरस दुचरित्तरहिउ तणुचिधु पलोइवि रामकहिउँ । णियहियवइ चितह अंजणेउ परणारिदेहसंतावहेउ । मरु मारमि अज्जु जि रणि दसासु गलि लायमि कालकियंतपासु। 5 पइवय पीरय पइबद्धपणय वाणारसि पावमि जणयतणय ।
अंग क्षीण हैं। वन में यहाँ-वहाँ लतामंडल है, परन्तु सीता का बाहुबलय शिथिल है। दन में हंस से क्रीड़ा-इर्ष किया जाता है, परन्तु सीता के जीवन का विध्वंश है । वन में दिशामुख में तिलक वृक्ष लगा हुआ शोभा देता है, सीता के ललाट से तिलक पुछ गया है। बन के वृक्ष, जनों से अधिष्ठित हैं, परन्तु सीता के नेत्र अंजन से रहित हैं। वन में प्रियार्थी को सहकार (आमवृक्ष) ही मारता है, परन्तु सीता के लिए कोई भी आधार (सहारा) नहीं है। जहाँ परमेश्वरी सीता देवी बल के विघटन से उदास मठशक्ति की तरह बैठी हुई हैं वह विद्याधर रूपी भ्रमर (हनुमान्) वहाँ शिशिपा वृक्ष के नीचे आया मानो वैदेही का जीवन ही आया हो।
पत्ता-बैठा हुआ वह भ्रमर दसों चरणों में प्रतिबिंबित होकर भ्रमण करता है। वह सीता के चरणकमलों में अपने पंख फैलाये घूमता है।
(18) असामान्य सुभटों का चक्रचूड़ामणि हनुमान् अपने मन में इस प्रकार विरुद्ध हो उठा, मानो सीता का शाप भाव होया मानो आग समद्धलो उठी हो।
राम के द्वारा कहे गए, सीता के दुश्चरित्र से रहित शरीर चिह्न को देखकर, परस्त्रियों के लिए संताप का कारण हनुमान् अपने मन में विचार करता है-मैं आज युद्ध में रावण को मार डालता हूँ, और उसे काल रूपी यम के पाश में डाल देता हूँ तथा पतिव्रता निष्पाप, अपने पति में
3.AP णिलागि। 4.P तें।
(18) 1. AP °भाव । 2. A दुचरित्तु । 3. AP देहु सताव 14. परु। 5. AP कालकयंत ।