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1141 महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[73. 19.4 परिभमइ रमइणउ कहि मिठाणि __ पियमित्तभवणि उज्जाणि जाणि। णायण गेउ मणोज्जवज्जु ण पजंजइ कि पि वि रायकज्ज । 5 णउ पहाइ ण परिहई दिव्वु वत्थु । णज लोयइ विविहाहारि हत्थु।
ज बंधइ णियसिरि कुसुमदासु णत मण्णाइ खगकामिणिहि काम् । ण विलेवणु सुरहिउ अंगि देइ विरहाउरु णउ अप्प विवेइ । ण भूसइ तणु णउ महइ भोउ णउ रुच्चइ तहु एक्कु वि विणोउ । जाहिं जाइ तहिं जि सो सीय णियई बारिज्जइ ढुक्की केण णियह। 10 अंधारए दिसंमुहउं घडिउं सीयहि मुहं पेक्नइ दिसहि जडिउं । पाणिउं वि पियइ सो तहि ससोउ परवसु बट्टा वीसचगी। करदीवदित्तु उठवणहिं चलिउ पियविरहहुयासें णाई जलिउ।। घत्ता–जहिं अच्छद्द णियडपरिट्टि र अंजणतणुरुहु बालउ ।। तहिं दहमुहु रइसूहु कहि लहइ वम्महु जहि पउिकूलउ ॥19।।
20 दुवई-अह अणुकूलु होउ मयरद्धउ सीयहि सीलदूसणं ।।
किज्जड कहि मि बप्प खज्जोएं कि रवियरविडसणंछ।। थिउ सीयहि पुरज खगिंदु केमणियमरणभवित्तिहि जोउ जेम।
मागर सत्ता दिनद विपत् पिष्ट तो ति ण कि संवरहि चित्त । और झूठ-मूठ सो जाता है, परिभ्रमण करता है, किसी एक स्थान पर रमण नहीं करता, प्रिय मित्र, भवन, उद्यान और यान में वह न गेय सुनता है, और न मनोज्ञ वाक्य और न कुछ भी राजकाज करता है। न नहाता है, न दिव्य वस्त्र पहिनता है और न विविध आहारों को अपने हाथ से लेता है। अपने सिर पर पुष्पमाला नहीं बांधता, विद्याधर स्त्रियों के साथ काम सुख नहीं माता । सुरभित विलेपन अपने शरीर पर नहीं देता। विरह से व्याकुल वह स्वयं को नहीं जानता। शरीर पर भूषण नहीं पहनता और न भोग को महत्त्व देता है । उसे एक भी विनोद अच्छा नहीं लगता है । वह जहाँ भी जाता है, उसे वहीं सीता देवी दिखाई देती है। आई हुई नियति का निवारण कौन कर सकता है ? अन्धकार में भी वह सीता का मुख सामने गढ़ा हुआ देखता है, उसे दशों दिशाओं में जड़ा हुआ देखता है । यह पानी भी पीता है तो वह ससीय (शीत सहित, सीता सहित) होता है। इस प्रकार रावण परवश हो उठा था। हाथ के दिए से दीप्त वह उपवन में इस प्रकार चला मानो प्रिय विरह की ज्वाला में जल गया हो।
घत्ता-जहाँ पर अंजना का पुत्र बालक हनुमान् निकट बैठा हुआ है, वहां रावण रति सुख कैसे प्राप्त कर सकता है कि जहाँ विधाता ही उसके प्रतिकूल है।
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अथवा कामदेव अनुकूल भी हो, तो क्या सीता देवी का शील-दूषण हो सकता है? हे सुभट, क्या खद्योत के द्वारा सूर्य किरणों का आभूषण किया जा सकता है ? ' सीता देवी के सम्मुख विद्याधरराज इस प्रकार स्थित था, जैसे अपनी मरण-भवितव्यता के सामने जीव बैठा हो । वह (रावण) कहता है : यद्यपि आज सातवाँ दिन समाप्त हो गया है, 2. A दिव्वषत्यु । 3. AP देहि । 4.A णिडि परि ।