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महाकवि पुष्पम् विरचित महापुराण
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दुबई -- जय देविदचंदखर्यारदफणिदणरिदपुज्जिया ॥ जय णिट्ठवियदुकम्मट्ठट्ठारह दोसवज्जिया || छ णमिद्दा ण भुक्खा |
ओण रोओ।
भोसुख
ण तव्हाण सोओ चावं ण वेरी
ण कार्य ण चेलं ण विदा ण थोत्तं हिंसाइ सग्गो गोभूमिदा ण चग्मुत्तरीयं " उरे णत्थि सप्पो पसूणतयाल सिरे णत्थि गंगा भवाणी ण देहे
पुराण कामी fort मtratऊ
ताणं ण मारी। सीसं सिहाल | मुद्दावित्त" । सोंडालमग्गो' ।
ण वेओ पमाणं । जोवीयं ।
मणे णत्थि दप्पो । करे णत्थि सूलं । जागोवियंगा" |
रई पोसणेहे" |
तुम मज्झ सामी । भवभोहिसेऊ ।
घत्ता - जय परमणिरंजण जणसरण" बीयराय जोईसर ||
[73.9. 1
जल पत्थर पाणि धम्भु गउ तुहुं जि धम्मु परमेसर ||9||
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देवेन्द्र चन्द्र विद्याधरेन्द्र नागेन्द्र और नरेन्द्रों के द्वारा पूज्य, आपकी जय हो । जिन्होंने आठों दुष्कर्मों का नाश कर दिया है, और जो अठारह दोषों से रहित हैं, ऐसे आपकी जय हो ।
त भोगों में आकांक्षा है, न नींद है, और न भूख, न तृष्णा है, और न शोक, न राग है, और न रोग । न चाप है, और न शत्रु है, न त्राण है, और न मारी। न शरीर है, और न वस्त्र है और न जटायुक्त सिर है, न निन्दा है और न स्तुति, न पवित्र मुद्रा है । न हिंसादि से स्वर्ग है, न सुरा मार्ग है, न गी और भूमि का दान है, न वेदों का प्रमाण है, न चर्म का उत्तरीय (मृगछाला) है और न यज्ञोपवीत है । उसपर सर्प नहीं है. मन में दर्प नहीं है, पशु-पशुओं का अन्त करने वाला शूल हाथ में नहीं है । न सिर पर गंगा है, न जटाओं में गुप्त अंग है। न देह में भवानी है और न स्नेह में रति हैं, और न त्रिपुर शत्रु हैं, न कामी हैं । हे देव, आप मेरे स्वामी हैं। जिनदेव ही मोक्ष के कारण हैं, भवरूपी समुद्र के सेतु हैं।
घत्ता - हे परम निरंजन जनशरण, आपकी जय हो । हे वीतराग ज्योतीश्वर, आपकी जय हो, जल, पत्थर और पानी में धर्म नहीं है । हे परमेश्वर, धर्म आप ही हैं ।
( 9 ) 1. AP ° पुज्जिय । 2. AP " वज्जिय । 3. AP पाओ। 4. AP तावं । 5. A ण कार्य सुचेलं; P कामे सुचेलं । 6. AP ण मुद्दा ण विसं । 7. Aण सो जष्णमग्गो 8. APण वेउप्पमाणं । 9. A सुत्तरीयं । 10. P जग्गोवियंगा। 11. AP साहे । 12. P जगसरण ।