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73.10.14] माहाकइ-पृष्फयंत-विरहया महापुराणु
[105 10 दुवई—दिणयरु हरइ तिमिरु सलिल वितिस खगवइ विसवियंभियं ।।
जिण तुह वंसणेण खणि णासह गुरुदुरियं णिसुंभियं ।।छ।। इय वैदिवि जिणवरु सेस लेवि खण एक्कु जाम तहि थक्क बे वि। ता तेयवंतु णं विजुदंड
णं सुरवरसरिडिंडीरपिंडु। वियडजडजूड़ विवरीयवाणि मणिरयणकमंडलु दंडपाणि । खणखणियमणियगणियक्खसुत्तु कोवीणकणयकडिसुतजुत्त । ससहरु व विसाहारूढमत्त असुरसुरसमरसंणि हियचित्त । सोत्तरियफुरियउववीयवंतु ता दिट्ठउ गारउ गयणि एंतु। अरहंतु णवेप्पिणु सुहृणिविठ्ठ। अम्हहि संभासणु करिवि दि४ । तुहुं जाणहि णिसुयसुयंगरिद्धि पुच्छिउ पावेसहुं किह सरिद्धि। 10 मुहं कइ संकइ वालि कासु को देसइ कुलरज्जावयासु। तादाणवमाणवरणरएण बिहसेप्पिणु बोल्लिऊ णारएण। घत्ता–भो खेयरपहु भूगोयरु वि धुउ तिजगुतमु भावहि ।। सेवहि रामह पणपंकयइं जइ तो कुलसिरि पावहि ।। 10II
(10) दिनकर अंधकार को नष्ट करता है, जल प्यास को और गरुण विष के फैलाव को। हे जिन, तुम्हारे दर्शन मात्र से भारी पाप एक क्षण में चूर-चूर हो जाते हैं।
इस प्रकार जिनवर की वन्दना कर निर्माल्य लेकर जैसे वे दोनों एक क्षण के लिए ठहरे कि इतने में तेज से युक्त मानो विद्युत दंड हो, मानो देव-गंगा का फेन समूह हो, बिकट जटाजूट वाला, विपरीत वाणी वाला, जिसका कमंडलु मणि और रत्नों का है, जो हाथ में दण्ड लिये हुए है, जो खनखनाता हुआ, मणियों का अक्षसूत्र जप रहा है, कोपीन और कनक कटिसूत्र से युक्त जो विशाखा नक्षत्र में रूव चन्द्रमा के समान पादुकाओं पर आरूढ़ है, जो असुर और सुरों के युद्ध में समाहित चित्त है, जिसके उत्तरीय पर यज्ञोपवीत चमक रहा है, ऐसे नारद को आकाश में आते हुए देखा। अरहंत को प्रणाम करके वह सुख से बैठ गए। हम लोगों ने संभाषण करने के लिए उनसे भेंट की और पूछा--आप निश्रत और श्न तांग की ऋद्धि को जानते हैं, हम अपनी ऋद्धि कब प्राप्त करेंगे ? बालि किससे मुख देवा रखता है और आशंका करता है ? कुलराज्य का आलिंगन कौन देगा? तब दानवों और मानवों के युद्ध में रत नारद ने हँस कर कहा
पत्ता हे विद्याधर स्वामी, भूगोचर (मनुष्य) भी विजय में उत्तम होते हैं । यदि तुम राम के चरणकमल चाहते हो, और सेवा करते हो, तो कुललक्ष्मी प्राप्त कर सकते हो।
(10) 1. AP विज्जदछ । 2. AP मणिरइय' । 3. A गलियक्ष" । 4. A सहु। 5. V विहसेविणु।