________________
[87
72.4.61
महाकइ-पुप्फयंत-विरइयड महापुराण तओ विसाएण वियारियंगओ खणेण होऊण मओ तहिं गओ। णिसण्णिया जत्थ धरासुया सई पिए मणो जोइ समप्पिओ सई। कुरंगओ बालतणंकुरासओ सुयाहिरामकियरामरासओ। णियच्छिओ दिटिमको रवण्णओ विचित्तपिछोहमऊरवण्णओ। महीरुहाए भणियं हिया सये इमं मह लोयणलोलणासयं ।
रिद हे राम पुलिंदकायरं रएण गंतुं धरिऊण कायरं। अणेयमाणिक्कमयं मयं महं कुलीण दे देहि णियच्छिमों महं ।' घत्ता-णिसुणिवि प्रियवयणु' सो रामें दीसइ केहउ ।।
सावज चित्तलउ चलु मणु काउरिसहं जेहउ ।।3।।
पविरलपएहि लघंतु महि लहु धावइ पावइ दासरहि । थोवंतरि मणहरु जाइ जवि कह कह व करंगुलि छित्तु ण वि। पहु पाणि पसारइ किर धरइ मायामउ मउ अमाइ सरइ। दुरंतरि णियतणु दक्खवाइ
खेलइ दरिसावइ मंदगइ। णवदूवाकंदकवलु' भरइ तरुवरकिसलयपल्लव चरह ।
कच्छंतरि सच्छसलिलु पियइ वकियगलु पच्छाउहुँणियइ। मग होकर वहाँ गया कि जहाँ पृथ्वीपुत्री सती सीता देवी बैठी हुई थी। उस सती ने अपने प्रिय में मन समर्पित कर रखा था। बाल तृणों को खाने वाला तथा जिसने सुनने में मधुर राम शब्द का उच्चारण किया है, ऐसा देखने में कोमल' और सुन्दर बह मृग देखा गया कि विचित्र पूछ समूह से मयूर के रंग का था। सीता ने स्वयं कहा—यह मग मेरे नेत्रों के लिए खेलने का साधन है। हे राजन्, हे राम, शरों के द्वारा आहत और अधीर उसे (मृग को) वेग से जाकर और पकड़कर लाओ और अनेक मणिक्यों से युक्त उस महान् मृग को, हे कुलीन दे दो, मैं उसे देखेंगी।"
- घत्ता--प्रिय के वचन सुनकर राम के लिए वह मृग इस प्रकार दिखाई दिया जैसे कापुरुष लोगों का चंचल मन हो।
अपने प्रविरल पैरों से धरती को लांघता हुआ वह शीघ्र दौड़ता है, राम को पाता है। वह सुन्दर थोड़ी दूर तक बेग से जाते हैं, किसी प्रकार हाथ की अंगुली से उसे छू भर नहीं पाते। स्वामी (राम) हाथ फैलाते और उसे पकड़ते हैं, वह मायामय मृग आगे बढ़ जाता है, दूरी पर अपना शरीर दिखाता है, फिर मंद गति दिखाता है, और क्रीड़ा करता है। नई दूब की जड़ों के कौर को खाता है, तरुवरों के किसलय पल्लवों को खाता है, बन के मध्य में स्वच्छ जल पोता है, टेढ़ी गर्दन और पीछे मुंह करके देखता है । जिनके फल तोतों को चोंचों के आघातों से गिर रहे 5. A जाइ । 6. A लोयणलोयणासयं । 7. A रएण तुगं। 8.1 णियत्थियामहं पश्याम्यहं. पश्यामि तेगः (उत्सवः?)। 9. AP पियवयण ।।
(4) 1. AP कमलु । 2. AP तरुवरपल्लवकिसलय । 3. AP पच्छामुहूं ।