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72. 8. 12]
महाक - पुफ्फयंत विरइम महत्पुराणु
पत्ता - दढणिवसणु सहि सुहड करासि ण वियट्टइ ॥ मरण समावडिइ परियरिविहि विहिं वि ण फिट्टइ ॥17॥
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परदारलुद्ध ठुक्कंतु खलु रावण' कि आणिय परजुवइ वणु णाई करइ साहुचरणु अलि कण्णा सण्णउ हणुरुणइ इच्छइ दससिरु पररमणिसुहं
सो विणिवहु उब्वेश्य उ दुज्जसु महु महणिहु महहि जइ हंसावलि लवइ व लोयपिय मालहि माथि एहतिय अंबड लोहियपल्लव ललिउ चंद पुणु बिसहर दक्खनइ रामाणीरमणकम्मरिङ
6. AP परिय रवि हि ।
कि लज्जइ कहि मि गामकमलु । तरु चुयसिहं एहिं रुवइ । हा पत्तजं णारिरयणमरण । पद एवं अजुत्तु णाई भणइ । कणइल्लउ वत्रिवि जाइ मुहं । कोइलु' विलवंतु व आइयउ । इदेहि भडारा रमहि तइ । मई जेही तेरी' कित्ति सिय । माणासहि लंकाउरिहि सिय । णं णिवअण्णायसिहि जलिउ । पडववखबाणमाणु' व थवइ । खरिदें' मणु मड्ड' धरिउ ।
( 8 ) 1P रमण | 2. A से सो। 3. 4 कोकिलु । 4. A तेही कित्ति ।
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धत्ता- स्त्री के दृढ़ वस्त्रों को सुभट का हाथ रूपी खड्ग नहीं काट सकता, मृत्यु आ जाने पर भी विधाता उसके कटिबंध को नहीं तोड़ सकता ।
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परस्त्री का लोभी दुष्ट रावण वहाँ आ पहुँचता है। क्या गाँव के कुसे को कहीं भी लाज आती है ? हे रावण, तू दूसरे की युवती को क्यों लाया ? जैसे वृक्ष अपनी गिरती उष्ण आंसुओं से यह रो रहा है । वन मानो अपनी शाखाएँ उठाता है ( और खेद व्यक्त करता है) कि नारी रत्न की मृत्यु आ पहुँची । कानों के समीप आकर भ्रमर गुनगुनाता है और मानो कहता है कि स्वामी, यह अयुक्त है। रावण परस्त्री के स्मरण सुख को चाहता है, (यह सोचकर ) शुक मुँह टेड़ा करके चला जाता है, मानो वह भी राजा से उद्विग्न है। कोयल भी विलाप करती हुई वहाँ आई ( और बोली ) : यदि तुम मेरे समान अपना दुर्यश ही चाहते हो तो आदरणीया वैदेही से रमण करना। हंसावली मानो कहती है कि तुम्हारी कीर्ति मेरे समान श्वेत और लोक प्रिय है, इस स्त्री का उपभोग कर तुम इसे मेला मत करो और न ही लंकापुरी की लक्ष्मी का नाश करो। अपने लाल-लाल पल्लवों से सुन्दर आम्रवृक्ष ऐसा मालूम होता है मानो वह नृप के अन्याय की अग्नि में जल गया हो | चंदन वृक्ष विषवरों को दिखाता है, और प्रतिपक्ष के मान को स्थापित करता है । जिसे रामभार्या के साथ रमण कर्म की शीघ्रता है ऐसे अपने मन को विद्याधर ने शीघ्र ही बलपूर्वक रोका ।
5. पविषमाणमाणु व 6 AP खर्यादाएं 7 A मंड
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