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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण क्षारमा सामाणिणि संणिहिया णंदणवणि। माणवाहिराम गओ दूरमुक्करामंगओ। पयडीक्रयससरीरओ भूहरभेइसरीरओ।
इर भुवणयले विस्सुओ रक्ख केउ महिवइसुओ। पत्ता-कालउ दहबयणु णवमेहु व दुह्यरु सीयइ॥
पियविरहाउरइ दिट्ठउ कंठट्ठियजीयइ ।।6।।
चित्तें मउलते मउलियउं लोयणजुयलंसुउः पयलियउं। आपंडुरत्तु गंडस्थलइ विलसिउ विलसिइ विरहाणलइ। कढकढकढंति ससहरपहई अंगई लामण्णवारिवहई। का दिसि केणाणिय केंव कहिं को पावइ.एवहिं रामु जहि । इय चितवंति मोहेण हर परपुरिसु णिहालिवि मुच्छ गय । पइवय परपइवयभंगभय णं पवणे पाडिय ललिय लय। भत्तारविओयविसंतुलिय' विहिबस सिलसंकडि पक्खलिय। णं कामभल्लि महियलि पडिय णं बाउल्लिय कंचणघडिय। सुहिसंयरणपसरियवेयणियः सा जइ वि थक्क णिच्चेयणिय।
परिहाणु ण तो बि ताहि ढलइ चल जारदिट्ठि कहिं परिघुलइ। 10 जल वाले नंदन वन में वह ठहरा दी गई। तब मनुष्य शरीर की रमणीयता को प्राप्त, राम के वेष को जिसने दूर फेंक दिया है, जिसके पास भूधरों का भेदन करने वाली नदी के समान वेग है, जिसने अपना शरीर (रूप) प्रगट कर दिया है, जो राक्षस की ध्वजाबाले राजपुत्र के रूप में प्रसिद्ध है
पत्ता-काले रावण को प्रिय बिरह से आतुर एवं कंठस्थित प्राणोंवाली सीता देवी ने इस प्रकार देखा जैसे नवमेध को देखा हो।
चित्त के मुकुलित होने पर नेत्र युगल भी बन्द हो गए, आँसू प्रगलित होने लगे। गालों पर सफेदी शोभित हो उठी। विरह की ज्वाला के प्रदीप्त होने पर, चन्द्रमा-सी प्रभा वाले सौन्दर्य जल को धारण करने वाले उसके अंग कड़कड़ाने लगे। यह कौन दिशा है, किसके द्वारा यहाँ लाई गई हूँ, किस प्रकार, कहाँ ? कौन मुझे वहाँ प्राप्त कराएगा कि जहाँ राम हैं ? इस प्रकार विचार करती हुई वह मोह से आहत हो उठो । परपुरुष को देखकर, दूसरे के पति द्वारा व्रत भंग से भयभीत पतिव्रता वह मूर्छा को प्राप्त हुई, मानो पवन ने सुन्दर लता को गिरा दिया हो । अपने पति के वियोग से अस्त-व्यस्त वह भाग्य के वश से शिलासंकट स्थान पर इस प्रकार स्खलित हो गई, मानो काम की मल्लिका धरती पर गिर पड़ी हो। फिर भी उसका परिधान (साड़ी) नहीं खिसका । चंचल जार की दृष्टि कहाँ ठहरती ? 5. AP इह ।
(7) 1. P जुउ अंसुय । 2. A आपसरस्थु । 3. AP का दिस । 4. A विसंतुलिया 1 5. A सुहिसुबरण ; P सुहिसुमरण ।