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[69. 19.1
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
19 देहिति तासु सुय जाहि तुहुं ता पहुणा जोइउं मंतिमुहुँ । गुरु चबइ एउ किर कित्तड महुँ तिहुयण सरिसव जेत्तडउं । जई णउ परिणावमि कण्ण पइं तो मंतित्तणु किउंकाई मई। इव भणिवि कवु कइणा विहिउ वरलक्खणु दलसंचइ लिहिउ । तं कासु वि कहिं मि ण दावियउं मंजूसहि तेण छुहावियउं । बहुवण्णविचित्तचीरपिहिउ णिवउववण महियलि संणिहिलं । हलियहि हलि हत्यु जेत्थु णिहिउ नहिं छुडु भूभाउ समुल्लियउ। कउ बढियतणकट्ठयरहिन जहिं पग्गहि धवलु परिग्गहिउ" । यावारिय कम्मु करति जहिं गंगरि' मंजूस विलग्ग तहिं। आयढिवि णीय णिहेलणहु दक्खालिय पशुहि सुजोहणह। उग्वाधिय पोत्थ जोइय अण्णेक्के भल्लवाया। पत्ता—दियवरवेसें दुक्कु कई पच्छण्णु सरायइ ।। वरइत्तहु सामुद्द, भासइ कोमलवायइ ॥19॥
. काणकुंटपिगला
अंधमयपंगुलाह। णिद्धणाहं णिब्बलाहं 'बुद्धिहीण-भलाह।
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तुम जाओ। कन्या उसे (मधुपिंगल को) दी जाएगी। तब राजा ने मंत्री का मुख देखा। तब गुरु ने कहा- यह मेरे लिए कितनी-सी बात है, मेरे लिए त्रिभुवन सरसों के समान है। यदि मैं तुम्हारा कन्या से विवाह न कराऊँ तो मैंने मंत्रीपन क्या किया? ऐसा कहकर कवि मंत्री ने एक उत्तम लक्षणों का काम्य बनाया और उसे पत्रसंपुट पर लिखा । उसे उसने कहीं भी किसी को नहीं दिखाया और मंजूषा में रख दिया। नाना रंग के विचित्र वस्त्र से ढकी हुई मजूषा को राजा के उद्यान की धरती में गाड़ दिया। किसान द्वारा हल पर हाथ रखते ही जहाँ शीघ्र भू-भाग जुत जाता है, जहाँ धरती गड़े हुए तिनकों और कठोरता से रहित है, जहाँ बैल लंगामों से ग्रहीत हैं, वहाँ किसान खेती का काम करते हैं और उनके हल में मंजूषा आ लगती है। वे उसे उठाकर अपने घर ले आये और उन्होंने अपने अच्छे योशा राजा को उसे दिखाया। खोलकर पोथी देखी गई और कई लोगों के द्वारा वह अच्छी तरह बांधी गई।
पत्ता-द्विजवर (ब्राह्मण) के वेश में कवि रूपी मंत्री प्रच्छन्न रूप में वहाँ पहुँचा और राग पूर्वक कोमल वाणी में वर को सामुद्रिक शास्त्र बताने लगा।
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__ काले, पोले, अन्धे, गूंगे, निर्धन, निर्बल, बुद्धिहीन, पागल, मान और लज्जा से रहित और (19) 1. A कित्तल; P केत्तरउं । 2. A तिहुषणु सरिस उ । 3. A चोरु पिहिउ । 4. AP समुल्लिहिल।
SA omits this toot. 6. Padds after this: सालग्गा रणिरु गहिज। 7.A लग्गलि;
P लंगलि । 8.A कहकपच्छण । (20) !. A 'विन्भलाह;"विभलाह।