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सतरिम संधि
forfa मंतिसुहासियई' मिच्छादंसणु गिट्टिउं ॥ दसरहृहियउल्लउं मेरुथिरु जिणवरधम्मि परिट्टिउं ॥ ध्रुवकं ॥
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अवरेहिं म अरुहि णिहित्त चित्त चणा मारियपरबलेण तंबारवार सो जणु जाउ इस मुसल गयासणिधणुहरेहि वायविय मोहु भ भतयहं महरयणरिद्धि ता वृत्त निमित्तवियक्खणेण तहि तर्हि गोमणि संमुहिय थाइ
संउ समति कल्लापमित्त । एत्थंतरि उत्त महाबलेण । वि जोयहि णिमणंदणपयाउ' । जिप्पंति ण जिप्पंति व परेहिं । ताराएं आउच्छिउ पुरोहु । तं गम होइ ण होइ सिद्धि । जहि जाइ रामु स लक्खणेण । दामोयरु मुविण पर विजाइ ।
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सत्तरवीं संधि
मंत्री के सुभाषित (अच्छे वचनों) को सुनकर राजा का मिथ्या दर्शन नष्ट हो गया तथा मेरु के समान स्थिर राजा दशरथ का हृदय जिन धर्म में लग गया ।
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दूसरे लोगों ने भी अरहन्त भगवान् में अपना चित्त लगाया और उन्होंने अपने मंत्री कल्याणमित्र की संस्तुति की। इसी बीच शत्रु सेना का नाश करने वाले महाबल नाम के सेनापति ने कहा- राजन्, नरक का द्वार जो यज्ञ संपन्न हुआ है, उसमें अपने पुत्र के प्रताप को देखिये । झस, मुसल, गदा, अशनि और धनुष को धारण करने वाले शत्रुओं के द्वारा के जीते जाते हैं या नहीं | विज्ञान -ज्ञान तथा नय से जिसने मोह को नष्ट कर दिया है, ऐसे पुरोहित से राजा ने पूछा कि बच्चों के वहाँ जाने से धरती रूपी रत्न की सिद्धि होगी कि नहीं। बताइये बताइये। तब नमित्तशास्त्र में प्रख्यात मंत्री ने कहा- राम लक्ष्मण के साथ जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ लक्ष्मी
(1) 1.A सुहासिउं । 2. AP गिट्टिय 3. AP परिट्टियई । 4. P णिवणंदण 5. A णयविहि
मणिमोहु ।