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[71. 11.11
महाकवि पुष्पदन्त धिरमित महापुराण घता-महधारहि सित्तउं णावइ मत्तउं मलयाणिलसंचालिउ ।
णवतरुवरसाहहिं पसरियबाहहिं णं णच्चंतु णिहालिउ ॥1॥
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रुक्खमूलरोहियधरायल कुसुमधूलिधुमरियणहयलं । फीलमाणसाहामयालय __ गयणलग्गतालीतमालयं । बिल्लचिल्लवेइल्लसदलं हरिणदंतदरमलियर्कदलं'। सच्छविचछुलुच्छलियजलकणं अयरुदेवदास्यहि घणघणं । विडविणिहसणुग्गमियड्डयवहं सुरहिधूमवासियदिसामुह । परिघुलंतककेल्लिपल्लवं पबणचलियमहिलुलियमहुलवं । बालबेल्लिविलएहिं णवणवं कीरकुररकारंडकलरव । अलयवलयविललंत अलिउल विविहकीलणावासपविउलं।
केयईर उक्खुसियमाणबं रमियखयरजक्खिददाणव । घत्ता-तहिं पयडियभावइ बहुरसदाबइ सिसुमाणिणिमणमोहणइ ।।
जण'इच्छियकोमलि बरवण्णुज्जलि णाइ कवि सुकइहि तणइ ॥12॥ पत्ता-मधु की धाराओं से सींचा गया एकदम मतवाला जो मानो मलयपवन के द्वारा संचालित हो, वह नववृक्षवरों की शाखाओं से मानो बाहें फैलाकर नाचता हुआ दिखाई दिया।।
(12) जहाँ भूमितल' वृक्षों की जड़ों से अवरुद्ध है, आकाशतल कुसुमधूलि से धूसरित है, जो खेलते हुए वानरों का घर है. जिसमें ताड़ी और तमाल वृक्ष आकाश को छू रहे हैं, बिल्व चिंचा और बेल के पत्तों से जो युक्त है, अगुरू और देवदारू वृक्षों से जो आच्छादित है, जिसमें वृक्षों के संघर्ष से अग्नि उत्पन्न हो रही है, जिसमें सुरभित धूप से दिशामुख सुवासित हैं; जो अशोक वृक्ष के पत्रों से व्याप्त है, हवा के चलने के कारण जिसमें बसंत लता धरतीतल पर लुठित है । बाल लताओं के घरों के द्वारा, जिसमें कीर, कुरद और कारंड पक्षियों का नब कलरब हो रहा है। बालों के समह के समान जिसमें भ्रमर मंडरा रहे हैं, जो विविध क्रीड़ाघरों से प्रचुर है, जिसमें मनुष्य केतकी पुष्पों को रज से लिप्त हैं, जिसमें विद्याधर, यज्ञेन्द्र और दानवेन्द्र क्रीड़ा करते हैं ।
पत्ता-सुकवि के काव्य की तरह जो भावों को प्रगट करने वाला है, अनेक रसों को प्रदशित करने वाला है। शिशु माननियों के मन को मोहने वाला है, जो जनों की इच्छाओं की तरह कोमल है। (जिसमें लोगों के द्वारा कोयल को चाहा जाता है), जो श्रेष्ठ रंगों से उज्ज्वल है, ऐसे उस नंदन वन में।
(12) 1.A सोहिय । 2. AP षड्ढमाणहितालतालयं। 3. P"दरदरिय: 4.AP "धूप। 5. A "कारंडकुलरवं । 6.A "रख उक्खुसिय" ।