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महाकद-युष्फत-विरइयज महापुराणु
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17 तं' हाराबलि तिम्मिवि पडियउं विहिणा कि णउ तेत्यु जि जडियउं। कहि लब्भइ पियसंगै आयउं काहि विमणि उच्छल्ल जायउं । काइ वि बल्लहहत्थ गलस्थिय देहतावहय ते ज्जि समस्थिय । णहणिवडत धरिय धवलामल तोयबिंदु णावइ मुत्ताहल। का वि णियंबिणि णाहहु णासइ वणि णिम्मज्जइ दूरहु दीसइ। सरि परिघोलिरु सहज पंडुरु पाणियछल्लि व कड्ढइ अबरु । का वि उरत्थलि चडिय उविदह णावइ विज्जुल अहिणवकंदहु। पति परामिपि अलका हारु ण तुट्टउ अवलोइय थण । कवि हियउल्लइ विभिय मंतइ अलयहं अलिहिं मि अंतरु चितइ। का वि ण इच्छइ जलपक्खालणु" कज्जलतिलयात्तपक्खालणु । उड्डइ अतरि करइंदीवरु। तह णवणालु'" च थिउ घारासरु ।
चवलरहल्लिजलोल्लियकेली एम करेप्पिणु चिरु जलकेली। पत्ता-सरि हाइवि णिग्गय णावइ दिग्गय थणयलघुलियहारमणिहिं ।।
पयलियरसधारहु तलि साहारहु सहुँ णिसण्णु णियपणइहिं ।। 17।।
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हारावली को गीला करता हुआ वह उसके ऊपर गिरा, विधाता ने उसे क्यों नहीं जड़ दिया। इसने प्रिय का संग कैसे प्राप्त कर लिया ? किसी के मन में यह उत्सुकता पैदा हई। किसी ने कंठ में स्थित देह के ताप को दूर करने वाले प्रिय के उन्हीं हाथों का समर्थन किया। किसी ने आकाश से गिरते हुए धवल और अमल जलबिन्दुओं को इस प्रकार धारण कर लिया जैसे मोती हों। कोई नितम्बिनी अपने स्वामी से भाग जाती है, और जल में डूबकर दूर दिखाई देती है। सरोवर में हिलते हुए सूक्ष्म और सफेद वस्त्र को वह पानी की छाल की तरह निकालती है। कोई लक्ष्मण के वक्षःस्थल पर चढ़ी हुई ऐसी प्रतीत होती है, मानो अभिनव मेष की बिजली हो । कमलिनी के पत्र पर जलकणों को देखकर वह अपने स्तन देखती है कि कहीं हार तो नहीं टूट गया। कोई अपने मन में विस्मित होकर विचार करती है और भ्रमर तथा बालों के अंतर को सोचती है। कोई काजल, तिलक और पत्र-रचना का प्रक्षालन करने वाले जलप्रक्षालन को नहीं चाहती। किसी का कर रूपी कमल पानी के भीतर है, चंचल लहरों और जल से आई है। ऐसी जलक्रीड़ा चिरकाल तक कर
घत्ता--जल में नहाकर वे इस प्रकार निकले मानो दिग्गज हों। जिनके स्तनतलों पर हारमणि व्याप्त हैं, ऐसी प्रणयिनियों के साथ रस की धारा से प्रगलित उत्तम आम्र वृक्ष के नीचे जब वे बैठे हुए थे।
(17) 1 APण। 2. P णिम्मिवि । 3. AP उन्धुल्लडं। 4. P°हरिय। 5. AP "तावहर। 6. Pणहणियांत । 7.P पंडरु । 8. AP तुट्ठछ । 9.A जलपध्वालणु | 10. AP°णालु पवित। 11. P पणयललिय।