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महाकवि पुष्पात विरचित महापुराण
[71.5.3 जो पडिकूलु होइ सो हम्मइ परवड पुणु सिविणि विण रम्मइ । भणइ दसाणणु जणसामण्णहं . जणएं जाणिवि दिण्णी अण्णहं। थीयणसारी णयणपियारी चपयगोरी हिययवियारी। सेलसिहरसंचालणचंडहिंसा अवरुंडमि जब भुयदंडहिं । तो सकयत्थु महारउं जीविउ तो मई णरभवफल संप्राविउ । जइ तहि तं मुहकमलु ण चुंबमि तो अप्पाण काई विडंबमि ।
कम्मणिबंधणेण णिक्काजें कि महुँ माहियलेण कि रज्ज। धत्ता-हरिणच्छिहि वत्तइ सुइसुहमेत्तई' उप्पाइउ मणि कलमलउ॥
10 रइकायरु कंपइ पुणु पुणु जपइ दहमुहु विरविसंठुलउ ।। 5 ।।
मुज्झिवि अंतरंगु दहगीय वाय विणिग्गय मुहि मारीयह। कामदाणसंताणहिं भगउ जा तुहं महिवइ सीयहि लग्गउ । तो वि मयणु मग्गं माणेवउ रत्तविरत्तचित्तु जाणेव । तं जाणिज्जइ विविहपयारे विडगुरुभासिएण सुयसारें।
अंसयदेसिजाइपरइत्यहु इंगियसत्तभावरसगुत्थहु। तुम्हारे प्रतिकूल है, उसे तुम्हें मारना चाहिए । लेकिन परवधू का रमण तुम्हें स्वप्न में भी नहीं करना चाहिए। तब दशानन कहता है--जनक ने जान-बूझकर (मुझे छोड़कर) किसी अन्य जनसामान्य को जानकी दे दी है। स्त्रीजन में श्रेष्ठ नेत्रों के लिए प्यारी, चंपक के समान गोरी, हृदय को चूर कर देने वाली ऐसी उसका, मैं (रावण) पर्वत शिखरों के संचालन से प्रचंड अपने भुजदंडों के द्वारा यदि उसका आलिंगन करता हूँ तो मनुष्य जीवन पाने का फल पा लेता हूँ। इसलिए यदि उसका मुखकमल मैं नहीं चूमता तो मैं अपने को बिडम्बित क्यों करता हूँ ? बेकार कर्म (निष्प्रयोजन) से क्या ? मेरे राज्य से क्या और धरती से क्या?
पत्ता-कानों के लिए सुख को मात्रा के समान उस मृगनयनी के वार्तामात्र से मेरे मन में हलचल मच गई है। रति में कायर रावण विरह से अस्त-व्यस्त होकर काँप उठता है, और बारबार कहता है।
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तब रावण का मन जानकर मारीच के मुंह से यह बात निकली--काम के वाणों की परम्परा से नष्ट हुए हे राजन्, यदि तुम सोता से लग गए हो तब भी तुम्हें कामदेव के मार्ग से उसे मानना चाहिए । रागी विरागी चित को जानना चाहिए । तथा काम्य-शास्त्र में कामाचार्य द्वारा कहे गए विविध प्रकार के इंगितों, सात भावों और रसों से परिपूर्ण हसादि देसी तथा जाति भेदों वाले स्त्रीसमूह में कामिनी को जानना चाहिए। इस प्रकार जो धरती पर कामिनियों को जानता 2. A सावष्णहं 3. AP हिपयपियारी। 4 AP omit सा; A अवरुडिवि। 5. AP संपाबित। 6. A णिपकज्जें। 7. A रायमूह ।
161 1. APमाणियउP जाणेच। 3. A जाईपयो : P जाइपयइत्यउ। 4.A "रसगुरुपर ।