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[69.28.11
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण अय पसु भणंतु सो वारियउ अवरेहि बुहेहि णीसारियउ। गउ मच्छरेण थरहरियतणु संपत्तउ णीलतमालवणु । __ पत्ता-तहिं दियवरवेसेण पब्बएण सो दिट्ठउ ।।
__ असुरसुईच मनु तपजि सिलहि णिनिहन ।।28।।
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मणपणयपसंगुष्पायण
ते तासु कय अहिवायण । बुड्ढेण वि पडिअहियाउ किज पुणु वुत्त होउ तुझ जि विणउ। सुय जायज जाणिउ कि ण पई चिर खीरकलंबें अवरु मई। दोहि मि सुभउमु गुरु सेवियउ सत्थत्थु असेसु वि भावियउ । आयउ किर जोइडं तासु मुहं ता पवसिउ सो सुउ दिठ्ठ तुहुं । लइ जण्णमहाविहिकारियहं सहसाई सट्टि पसुवहरियहं । सयराहराय अग्भुखरहि मह' महियलि कारावहि करहि। हवं कंचुइ अज्जु परइ मरमि णियविज्जइ पई जि अलंकरमि । दियतरुणि ता तहु इच्छिय तं विज्जादाणु' पडिच्छियउं । पुरदेसहं घल्लिउ मारि जरु पहु को वि गवेसइ संतियरु ।
गय बेणि वितं कोसलणयर दोहिं वि संबोहिउ णिवु'" सयरु । वचन का प्रतिरोध करता है। अज को पशु कहते हुए वह मना किया गया। दूसरे पंडितों ने उसे निकाल बाहर किया। ईर्ष्या के वश वह चला गया और जिसमें हरा घास कंपित है, ऐसे नील तमाल वन में पहुंचा।
पत्ता-वहां श्रेष्ठ ब्राह्मण के वेश में पर्वतक ने उसे देखा जो पेड़ के नीचे चट्टान पर सा हुआ असुरों के शास्त्र को पढ़ रहा था।
(29) उसने उसके मन में प्रेम प्रसंग को उत्पन्न करने वाला अभिवादन किया। उस वृद्ध ने भी प्रत्यभिवादन किया और कहा कि तुम्हें भी विनय प्राप्त हो । हे पुत्र, क्या तुम यज्ञ को नहीं जानते ? बहुत पहिले मैं और क्षीरकदंब दोनों ने सुभौम गुरु की सेवा की थी। समस्त शास्त्रार्थ का विचार किया था। मैं उनका मुख देखने के लिए आया था। लेकिन वह प्रवसित हो चुके हैं। हे पुत्र, तुम्हें मैंने देखा है, यन्त्र की महाविधि कराने वाली पशुबंध से संबंधित साठ हजार ऋचाएं लो और सगर आदि राजाओं का उद्धार करो, धरती पर यज्ञ करो और कराओ। मैं तो बढा आदमी हूँ, कल या परसों मर जाऊँगा। अपनी विद्या से तुम्हीं को अलंकृत करूँगा । ब्राह्मण युवक ने उसे चाहा और उसका विद्यादान स्वीकार कर लिया। मगर और देश में महामारी का ज्वर फैल गया। राजा किसी शांति करने वाले की खोज में रहता है। वे दोनों उस अयोध्या नगर जाते हैं। दोनों ने राजा सगर को संबोधित किया। (29) I. A मणे । 2- A तं तासु। 3. P अभिवायण। 4.A पडिपणिवाउ । 5. AP होइ। 6.A
"कयो । 7. A महु । 8.A कंचु बग्छु । 9. P विज्जा । 10. AP णिउ सगरु ।